व्यंग्य की तलवार और उसकी म्यान पर प्रहार
- विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल
व्यंग्य साहित्य और कला की वह धार है जो समाज की कुरीतियों, अत्याचारों और विसंगतियों को लक्ष्य करती है। परंतु जब यही तीखापन सत्ता, धर्म या स्थापित ताकतों को चुभता है, तो व्यंग्यकार स्वयं निशाने पर आ जाता है। भारत में व्यंग्य की समृद्ध परंपरा रही है, लेकिन इसके साथ ही व्यंग्यकारों के दमन, धमकियों और आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा का एक काला इतिहास भी जुड़ा है। यह विरोध ही व्यंग्य की सर्वोच्च शक्ति उसकी "मारक क्षमता" का सबसे बड़ा प्रमाण है। असुरक्षित व्यंग्यकारों का संघर्षपूर्ण लेखन जारी रहना व्यंग्य की ऊर्जा है।
हरिशंकर परसाई पर हमला: हिंदी व्यंग्य के पितामह परसाई को उनकी कलम की तीक्ष्णता के लिए निशाना बनाया गया। उनकी रचनाएँ सत्ता की मनमानी, धार्मिक पाखंड और सामाजिक ढोंग को बेनकाब करती थीं। इसी कारण उन्हें सीधे धमकियों और विरोध का सामना करना पड़ा। उन पर "भड़काऊ" लेखन का आरोप लगाकर सामाजिक और साहित्यिक हलकों में हमले किए गए। उनका संघर्ष दिखाता है कि सच्चा व्यंग्य सत्ता को असहज करता है।
हरि जोशी और आपातकाल का दमन: भोपाल के प्रखर व्यंग्यकार हरि जोशी इमरजेंसी (1975-77) के कुख्यात दौर के शिकार हुए। उस समय सरकार ने किसी भी प्रकार के विरोध, आलोचना या व्यंग्य को दबाने का प्रयास किया। कार्टून बनाना और व्यंग्य लिखना प्रतिबंधित था। जोशी जी के तीखे व्यंग्य सत्ता के गलियारों तक पहुँचते थे, जिसके चलते उन पर दबाव बनाया गया, उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगाने या उन्हें नौकरी से हटाने की कोशिशें हुईं। यह काल दर्शाता है कि सत्ता व्यंग्य की ताकत से कितना भय खाती है।
अभिषेक अवस्थी और धार्मिक कट्टरता: कानपुर के पत्रकार/लेखक अभिषेक अवस्थी ने 'नईदुनिया' अखबार के स्तंभ में एक व्यंग्यात्मक लेख लिखा। यह लेख कबीर के दर्शन पर उनका दृष्टिकोण था। कुछ कबीर पंथियों ने इसे अपने आराध्य का अपमान समझा और उनके खिलाफ मुकदमा दायर कर दिया। यह प्रकरण धार्मिक भावनाओं के नाम पर व्यंग्य की स्वतंत्रता पर हमले का उदाहरण है, जहाँ साहित्यिक अभिव्यक्ति को जानबूझकर गलत समझा जा सकता है।
निशाने पर स्टैंड-अप कॉमेडी: आज के दौर में स्टैंड-अप कॉमेडी व्यंग्य का लोकप्रिय माध्यम बन गया है। अनेक कॉमेडियन अक्सर सत्ता, धर्म और सामाजिक मुद्दों पर तीखी टिप्पणी करते हैं। उनके खिलाफ सोशल मीडिया ट्रोलिंग, धमकियाँ, एफआईआर दर्ज होना और कई बार शो रद्द करने के दबाव सामान्य हो गया है। ये घटनाएँ साबित करती हैं कि व्यंग्य की ताकत आज भी उतनी ही प्रासंगिक और "खतरनाक" है जैसी महात्मा कबीर के समय थी ।
तस्लीमा नसरीन और सलमान रश्दी, धार्मिक कट्टरता का कोप: भारत से परे भी साहित्य , धर्म और आलोचना पर विरोध के प्रहार होते हैं। बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को धार्मिक कट्टरपंथियों के विरोध और फतवों के कारण अपना देश छोड़ना पड़ा। उनकी पुस्तकों पर प्रतिबंध लगे। सलमान रश्दी के उपन्यास "द सैटेनिक वर्सेज" के लिए उन पर ईरान ने फतवा जारी किया। ये मामले दिखाते हैं कि व्यंग्य और आलोचना को धर्म के नाम पर किस कदर दबाने की कोशिश होती है।
रवीश कुमार, मुखरता की कीमत: टी वी पत्रकार रवीश कुमार का मुखर और अक्सर व्यंग्यात्मक पत्रकारिता के चलते एनडीटीवी छोड़कर यूट्यूब पर जाना पड़ा, सत्ता के प्रति आलोचनात्मक आवाज़ों पर संस्थागत दबाव का प्रतीक दर्शाता है कि स्वतंत्र मीडिया में भी व्यंग्य और सच्ची आलोचना के लिए जगह संकुचित होती जा रही है।
विरोध ही व्यंग्य की ताकत सिद्ध करता है
व्यंग्य जितना प्रभावी होता है, उस पर उतना ही ज्यादा विरोध और दमन होता है। यह विरोध व्यंग्य की सफलता की मुहर है। जब व्यंग्य सत्ता की नींद उड़ाता है, धार्मिक ठेकेदारों के पाखंड को उजागर करता है, या सामाजिक अन्याय को चिह्नित करता है, तभी तो उस पर प्रतिक्रिया होती है। यह प्रतिक्रिया ही सिद्ध करती है कि व्यंग्य ने अपना निशाना सही साधा है।
समझौता: एक कड़वी मजबूरी है। कई प्रतिभाशाली व्यंग्यकार अंततः समझौता कर लेते हैं। वे अपनी कलम की धार कुंद कर देते हैं, तथा सत्ता के विरोध से तथा विवादास्पद विषयों से परहेज करने लगते हैं, या फिर "सुरक्षित" मुद्दों पर ही लिखते हैं। यह उनकी कायरता नहीं, बल्कि एक कड़वी मजबूरी है, जिसके दो मुख्य कारण हैं:
आर्थिक असुरक्षा: अधिकांश व्यंग्यकार असंगठित क्षेत्र के फ्रीलांसर हैं। उनका कोई स्थायी वेतन, नौकरी की सुरक्षा, स्वास्थ्य बीमा या पेंशन नहीं होती। वे अखबारों, पत्रिकाओं, वेबसाइटों या ईवेंट्स के लिए काम करते हैं। एक विवाद होने पर उनका काम रुक सकता है, कॉन्ट्रैक्ट खत्म हो सकते हैं, और आय का स्रोत सूख सकता है। मुकदमों का सामना करने के लिए उनके पास संसाधन नहीं होते। यह भय उन्हें स्व-सेंसरशिप के लिए मजबूर करता है। उदाहरण के लिए, एक फ्रीलांस व्यंग्यकार जिस पर मुकदमा दर्ज हो जाए, उसकी सारी ऊर्जा और संसाधन उस मुकदमे में खप जाते हैं, लिखने का समय और मानसिक शांति दोनों छिन जाते हैं।
सामाजिक असुरक्षा: व्यंग्यकारों के खिलाफ सोशल मीडिया पर अभियान चलाया जाता है, उन्हें और उनके परिवार को सीधे धमकियाँ दी जाती हैं, सामाजिक बहिष्कार का डर बना रहता है। राज्य की सुरक्षा व्यवस्था पर भरोसा कमजोर होता है। ऐसे में, व्यक्तिगत और पारिवारिक सुरक्षा की चिंता उन्हें आत्म-नियंत्रण के लिए विवश कर देती है।एक व्यंग्यकार जिसके घर पर पथराव होता है या परिवार को ऑनलाइन धमकियाँ मिलती हैं , उसकी प्राथमिकता अगले व्यंग्य लेख को लिखने से ज्यादा अपनों की सुरक्षा हो जाती है।
व्यंग्य लोकतंत्र का स्वास्थ्य-बैरोमीटर है। जिस समाज में व्यंग्यकार स्वतंत्रता से अपनी बात कह सकते हैं, वह समाज जीवंत और आत्मनिरीक्षण करने वाला होता है। जब व्यंग्यकारों को डर, दबाव और असुरक्षा में काम करना पड़ता है, तो यह लोकतंत्र के लिए खतरे की घंटी है।
व्यंग्य की ताकत उसकी सच्चाई और निडरता में है। परसाई, जोशी, त्यागी , अवस्थी, रवीश और अनगिनत स्टैंड-अप कॉमेडियन के संघर्ष इस ताकत के प्रमाण हैं। हालाँकि, उनकी आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा एक गंभीर चिंता का विषय है। व्यंग्यकारों को फ्रीलांसर की अनिश्चितता और भय से बाहर निकालने के लिए:
साहित्यिक संस्थाओं और नागरिक समाज को उनके लिए कानूनी और आर्थिक सहायता तंत्र विकसित करने चाहिए। मीडिया संस्थानों को अपने कर्मचारियों और फ्रीलांसर्स को सुरक्षा और समर्थन देना चाहिए। राज्य को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा केवल संविधान में ही नहीं , वास्तविक स्वरूप में करनी चाहिए और धमकियों व अवैध दबाव के खिलाफ कठोर कार्रवाई करनी चाहिए।
समाज को भी अधिक सहिष्णु और आलोचना सहने की क्षमता विकसित करनी चाहिए।
व्यंग्यकारों के समझौते को उनकी नैतिक विफलता नहीं, बल्कि एक ऐसी व्यवस्था की विफलता के रूप में देखा जाना चाहिए जो अपने सबसे प्रखर आलोचकों की रक्षा करने में असमर्थ है। व्यंग्य की तलवार तभी तेज रह सकती है जब उसे रखने वाली म्यान (व्यंग्यकार) स्वयं सुरक्षित और सशक्त हो। अन्यथा, हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ेंगे जहाँ सच्चाई डर कर छिप जाएगी और केवल खोखली तारीफों की आवाज़ गूंजेगी।
- विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल