काव्य :
हार नहीं मानूगां यार
समंदर खारा हुआ तो ,
क्या हार कर बैठ जाऊं?
ये ये मुझे गवारा नहीं कि
मैं जीते जीते हार जाऊं!
हारना मेरी फितरत नहीं
मैंने देखे कई कई समंदर
सहे कई तूफानो बवंडर
हम हैं वक्त के सिकंदर
चाहत चांद पकड़ने की
बंजर भू हरा करने की,
पत्थर में फूल खिलानेकी
आकाश के तारे तोड़ने की
विश्वामित्र समुद्र से नहीं हारे
यहीं कहा ओ मान जा रे
जब नहीं माना तो सारे
समुंदर उन्होंने पी डारे
चुनौतियां चपल होती हैं
हम मैं अकल होती है
उन पर विजय हम पाते
काम हमसे हीं हो पाते हैं
हमारे काम हम ही करते हैं
कोई देवता नहीं आते
कहे राम इंदौरी बताओ
काम जो हमसे नहीं होते!
- राम वल्लभ गुप्त इंदौरी
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