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14 अगस्त का सबक: नफरत का अंत विनाश ही है -प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी


 [प्रसंगवश – 14 अगस्त: विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस]

14 अगस्त का सबक: नफरत का अंत विनाश ही है

[बंटवारे की राख से उठते नए भारत के सपने]

      14 अगस्त 1947, एक तारीख जो स्वतंत्रता के उल्लास के साथ-साथ अकथनीय त्रासदी की गवाह बनी। यह दिन न केवल देश का, बल्कि दिलों, रिश्तों और इंसानियत का बंटवारा था। लाखों जिंदगियां एक पल में उजड़ गईं; हंसी-खुशी से भरे घर खामोश मलबे में तब्दील हो गए। बच्चों की किलकारियों वाली गलियां खून और चीखों से सनीं। यह विभाजन नक्शे की रेखाओं तक सीमित नहीं रहा; इसने दिलों में ऐसी दरारें डालीं, जो आज भी दर्द की कहानियां बयां करती हैं।

इस त्रासदी ने करोड़ों लोगों को उनकी जड़ों से उखाड़ फेंका। करीब डेढ़ करोड़ लोग अपनी जन्मभूमि छोड़ अनजान रास्तों पर चल पड़े। पंजाब, सिंध, बंगाल हर ओर बेघर हुए लोग अपने घर, खेत और सपने पीछे छोड़कर भागे। कोई अमृतसर से लाहौर, तो कोई कराची से दिल्ली या मुंबई की ओर। रास्ते में न भोजन, न पानी, न ही सुरक्षा। ट्रेनें, जो कभी जीवन की रफ्तार थीं, लाशों का मंजर बन गईं। इतिहासकार बताते हैं कि 10 से 12 लाख लोग हिंसा, भूख और बीमारियों की भेंट चढ़े। रेल की पटरियां शवों से पटीं, गांव आग में झुलसे, और नदियां खून से लाल हो गईं। यह वह मंजर था, जिसने आजादी की खुशी को मातम में डुबो दिया।

विभाजन की यह पीड़ा केवल आंकड़ों की कहानी नहीं थी; यह हर उस इंसान की व्यक्तिगत त्रासदी थी, जिसने अपने परिवार, घर, और पहचान को खोया। बुजुर्ग अपनी संतानों को बचाने के लिए जान जोखिम में डालते रहे। महिलाएं भय और असुरक्षा के साये में जीने को मजबूर थीं। बच्चे, जो अभी दुनिया को समझने की उम्र में थे, रातोंरात अनाथ हो गए। पड़ोसी, जो कल तक एक-दूसरे के सुख-दुख में साथी थे, एक-दूसरे के खून के प्यासे बन गए। यह हिंसा केवल शरीर को ही नहीं, बल्कि आत्मा को भी लहूलुहान कर गई। परिवार बिछड़ गए, गांव उजड़ गए, और जो बचे, उनके दिलों में हमेशा के लिए एक खालीपन छा गया।

इस त्रासदी का सबसे हृदयविदारक सच यह है कि यह अचानक नहीं उभरी। वर्षों की सामाजिक, राजनीतिक और औपनिवेशिक नीतियों ने समाज में ऐसी खाई बनाई, जो समय के साथ गहरी और जहरीली होती गई। ब्रिटिश शासकों की “बांटो और राज करो” की नीति ने नफरत के बीज बोए, जिनका परिणाम 1947 में सामने आया। 15 अगस्त को तिरंगे ने आजादी का गान गाया, लेकिन 14 अगस्त की रात ने लाखों जिंदगियों को अंधेरे में डुबो दिया। यह स्वतंत्रता की कीमत थी, जिसे कोई नहीं चुकाना चाहता था।

इस अंधेरे में भी मानवता की किरणें चमकीं। जिन्होंने सब कुछ खोया, उन्होंने हार नहीं मानी। दिल्ली, मुंबई, अमृतसर, कोलकाता के शरणार्थी शिविरों में बसकर, खाली हाथ आए लोगों ने हिम्मत और मेहनत से नई जिंदगी बुनी। दुकानें खोलीं, खेत जोते, बच्चों को पढ़ाया, और समाज में अपनी जगह बनाई। यह उनकी अटूट इच्छाशक्ति का सबूत है, जिसने न केवल उनका, बल्कि आने वाली पीढ़ियों का भविष्य संवारा। मगर उनके दिलों में एक सवाल ताउम्र गूंजता रहा—यह सब क्यों हुआ? इस पीड़ा का जिम्मेदार कौन?

यही कारण है कि 14 अगस्त को “विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस” के रूप में मनाना जरूरी है। यह दिन केवल अतीत के घावों को सहलाने का नहीं, बल्कि उनसे सबक लेने का है। यह हमें चेतावनी देता है कि नफरत और बंटवारे का रास्ता केवल विनाश की ओर ले जाता है। यह हमें सिखाता है कि धर्म, जाति, या भाषा के नाम पर खड़ी दीवारें इंसानियत को कमजोर करती हैं। यह दिन हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता का असली अर्थ तभी साकार होता है, जब हम एक-दूसरे के साथ भाईचारे और सम्मान के साथ रहें।

आज 14 अगस्त को स्मरण करना केवल शोक की रस्म नहीं, बल्कि एक प्रबल प्रेरणा है—एक ऐसे भारत के निर्माण की, जहां मतभेद संवाद से सुलझें, और हर संस्कृति व विश्वास का सम्मान हो। यह दिन चेताता है कि स्वतंत्रता तभी सार्थक है, जब हम एकजुट रहें। इतिहास की भूलों को दोहराने के बजाय, हमें उनसे सीखकर एक सशक्त, समावेशी भारत गढ़ना है। विभाजन की त्रासदी को याद करने वाले कार्यक्रम प्रदर्शनियां, मौन जुलूस, साहित्यिक चर्चाएं महज औपचारिकता नहीं, बल्कि उन लाखों आत्माओं को सच्ची श्रद्धांजलि होने चाहिए, जिन्होंने अपने घर, सपने और जीवन खोए। यह दिन हमारे विवेक को झकझोरता है, हमें आत्ममंथन के लिए मजबूर करता है, क्या आज सोशल मीडिया पर फैलती गलत सूचनाएं और धार्मिक-सामाजिक उन्माद उसी आग की चिंगारी नहीं, जिसने कभी यह विभीषिका जन्म दी?

14 अगस्त का यह दिन एक दर्पण है, जो हमारे अतीत की त्रासदी को उजागर करता है और भविष्य के लिए गहन सबक देता है। यह चेतावनी है कि यदि हम एकता और सद्भाव को नहीं थामे, तो इतिहास की विभीषिका फिर लौट सकती है। हमारी जिम्मेदारी है कि इस पीड़ा को केवल स्मृति तक सीमित न करें, बल्कि इसे अपने विचारों और कर्मों में ढालें, ताकि भावी पीढ़ियां कभी ऐसी त्रासदी न देखें। “विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस” केवल एक तारीख नहीं, बल्कि एक दृढ़ संकल्प है—एक ऐसे भारत के निर्माण का, जहां हर व्यक्ति बिना भेदभाव के सम्मान और स्वतंत्रता के साथ जी सके। यह दिन हमें सिखाता है कि आजादी का उत्सव तभी सार्थक है, जब हम एक-दूसरे के दर्द को समझें और उसे कम करने का प्रयास करें। नफरत की आग केवल राख छोड़ती है, पर प्रेम और एकता के बीज से ही एक समृद्ध, शक्तिशाली राष्ट्र उगता है। 14 अगस्त को केवल याद करने का नहीं, बल्कि एक बेहतर, एकजुट भारत के लिए कदम उठाने का अवसर बनाएं।

 - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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