इज्ज़त का हक़ — सिर्फ़ औरत नहीं, हर इंसान का
[इज्ज़त को लिंग से बाँधना सबसे बड़ा अन्याय]
समाज की नींव समानता और न्याय पर टिकी होनी चाहिए, मगर हकीकत यह है कि सदियों से ‘इज्ज़त’ को लेकर एकपक्षीय सोच ने जड़ें जमा ली हैं। हमें बचपन से सिखाया जाता है कि “औरत की इज्ज़त” सर्वोपरि है, मानो पुरुष की गरिमा, उसकी भावनाएँ, उसका दर्द और उसका सम्मान कोई मायने ही नहीं रखता। यह सवाल गूँजता है—इज्ज़त सिर्फ औरत की क्यों? क्या पुरुष की अस्मिता का कोई मूल्य नहीं? क्या उसकी पीड़ा को केवल इसलिए अनदेखा कर दिया जाता है क्योंकि वह पुरुष है? यह दोहरा मापदंड न केवल सामाजिक असंतुलन पैदा करता है, बल्कि एक ऐसी दुनिया रचता है जहाँ पुरुष की आवाज़ को दबा दिया जाता है और उसका सच अनसुना रह जाता है। इज्ज़त को सिर्फ स्त्री की देह और उसकी शुचिता तक सीमित करना समाज की सबसे बड़ी भूल है। यह सोच पुरुषों के प्रति एक गहरे अन्याय को जन्म देती है, जिसे अब अनदेखा नहीं किया जा सकता।
जब किसी महिला के साथ अन्याय होता है, समाज तुरंत उसकी हिमायत में खड़ा हो जाता है। सड़कों पर प्रदर्शन, सोशल मीडिया पर हंगामा, और न्याय की माँग—यह सब स्वाभाविक और ज़रूरी है। लेकिन जब पुरुष के साथ शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक हिंसा होती है, तो समाज खामोश क्यों हो जाता है? पुरुषों की पीड़ा को नजरअंदाज करना, उसे मर्दानगी के तमगे से ढक देना, एक खतरनाक परंपरा बन चुकी है। घरेलू हिंसा अधिनियम (2005) केवल महिलाओं की सुरक्षा पर केंद्रित है, जबकि अध्ययन बताते हैं कि भारत में 25-30% विवाहित पुरुष कभी न कभी घरेलू हिंसा का शिकार होते हैं। यह हिंसा सिर्फ शारीरिक नहीं, बल्कि भावनात्मक और आर्थिक भी है—लगातार अपमान, बच्चों से बिछड़ना, झूठे मुकदमों में फँसना, या आर्थिक शोषण। फिर भी, समाज पुरुष से अपेक्षा करता है कि वह चुप रहे, क्योंकि “मर्द को दर्द नहीं होता”। यह सोच पुरुषों को एक ऐसी जेल में कैद करती है, जहाँ उनकी पीड़ा को कोई नाम नहीं मिलता।
यौन शोषण के मामले में भी समाज का रवैया पक्षपातपूर्ण है। आम धारणा है कि यौन उत्पीड़न सिर्फ महिलाओं के साथ होता है, लेकिन हकीकत इससे कहीं अलग है। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की 2007 की एक रिपोर्ट में खुलासा हुआ था कि भारत में 53% बच्चे—लड़के और लड़कियाँ दोनों—यौन शोषण का शिकार होते हैं। एनसीआरबी के आँकड़े और स्वतंत्र अध्ययन बताते हैं कि किशोर लड़के और युवा पुरुष भी यौन हिंसा का सामना करते हैं। मगर समाज उनकी पीड़ा को या तो हँसी में उड़ा देता है या चुप कराने की कोशिश करता है। एक पुरुष के यौन शोषण को गंभीरता से न लेना, उसकी इज्ज़त को ठेस पहुँचाने जैसा है। यह क्रूर विडंबना है कि एक ही अपराध को लिंग के आधार पर अलग-अलग तराजू पर तौला जाता है।
इज्ज़त को सिर्फ स्त्री की देह से जोड़ना पुरुषों के लिए भी अन्यायपूर्ण है। समाज ने पुरुष की इज्ज़त को उसकी कमाई, सफलता और “मजबूती” से जोड़ दिया है। अगर वह बेरोजगार है, आर्थिक रूप से कमजोर है, या अपनी पत्नी से कम कमाता है, तो उसकी इज्ज़त पर सवाल उठने लगते हैं। यह सोच पुरुषों को मानसिक दबाव और अवसाद की गहरी खाई में धकेल रही है। एनसीआरबी 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में आत्महत्या करने वालों में 70% पुरुष थे, जिनमें से अधिकांश पारिवारिक दबाव, आर्थिक तंगी और सामाजिक अपेक्षाओं के बोझ तले दबे थे। यह आँकड़ा चीख-चीखकर बताता है कि समाज पुरुष से सिर्फ कर्तव्य निभाने की उम्मीद करता है, उसकी भावनाओं को सुनने की नहीं। पुरुषों की आत्महत्या की दर महिलाओं से तीन गुना अधिक होना इस बात का सबूत है कि उनकी इज्ज़त और मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से नहीं लिया जाता।
झूठे आरोपों का दंश भी पुरुषों की इज्ज़त को चोट पहुँचाता है। एक झूठा इल्ज़ाम पुरुष की पूरी जिंदगी तबाह कर सकता है। चाहे वह अदालत में निर्दोष साबित हो जाए, मगर समाज और मीडिया की नजरों में वह हमेशा संदिग्ध बना रहता है। भारत में दहेज उत्पीड़न कानून (498A) के दुरुपयोग के कई मामले सामने आए हैं, जहाँ पुरुषों और उनके परिवारों को बिना सबूत के सालों तक कानूनी और सामाजिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी। 2019 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताई थी, फिर भी समाज में पुरुष की इज्ज़त को इस तरह की बदनामी से बचाने की कोई चर्चा नहीं होती। यह एकतरफा सोच पुरुषों को असहाय और समाज में हाशिए पर धकेल देती है।
हमारी सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताएँ भी इस असमानता को पोषित करती हैं। भारतीय संस्कृति में स्त्री की रक्षा को धर्म से जोड़ा गया है, लेकिन पुरुष की इज्ज़त और गरिमा की रक्षा को उतना महत्व नहीं दिया गया। महाभारत में द्रौपदी के चीरहरण को इज्ज़त से जोड़कर देखा जाता है, लेकिन अभिमन्यु के छलपूर्ण वध को शायद ही सम्मान के दृष्टिकोण से याद किया जाता है। यह प्रवृत्ति इतिहास से लेकर आज तक चली आ रही है, जहाँ पुरुष के दर्द को कमतर आँका जाता है।
इज्ज़त की परिभाषा को फिर से गढ़ने की जरूरत है। इज्ज़त न तो स्त्री की देह तक सीमित है, न ही पुरुष की कमाई या ताकत तक। यह हर इंसान की गरिमा, उसकी भावनाओं और उसके अस्तित्व का सम्मान है। समाज को यह समझना होगा कि पुरुष भी इंसान हैं—वे भी रो सकते हैं, उन्हें भी सहानुभूति चाहिए, और उनकी इज्ज़त का हनन उतना ही गंभीर है जितना किसी और का। स्कूलों, कॉलेजों और परिवारों में बच्चों को यह सिखाना होगा कि सम्मान लिंग पर नहीं, इंसानियत पर आधारित होना चाहिए। लैंगिक समानता का मतलब सिर्फ महिलाओं का उत्थान नहीं, बल्कि पुरुषों की पीड़ा को भी सुनना और उनकी गरिमा को बराबर महत्व देना है।
सोशल मीडिया और डिजिटल युग में इस मुद्दे को उठाने का बेहतरीन अवसर है। युवा पीढ़ी को जागरूक करने के लिए अभियान चलाए जा सकते हैं। हमें ऐसी कहानियाँ सामने लानी होंगी, जहाँ पुरुषों ने अपनी पीड़ा को आवाज़ दी और समाज ने उनकी बात सुनी। गैर-सरकारी संगठन और सरकार को मिलकर पुरुषों के लिए भी कानूनी सुरक्षा और काउंसलिंग सेवाएँ शुरू करनी चाहिए। घरेलू हिंसा और यौन शोषण के खिलाफ पुरुषों के लिए भी नीतियाँ बननी चाहिए, ताकि उनकी इज्ज़त को भी उतना ही संरक्षण मिले।
राष्ट्रीय नेत्रदान पखवाड़े की तरह, हमें एक राष्ट्रीय लैंगिक समानता पखवाड़ा शुरू करना चाहिए, जहाँ इज्ज़त को लिंग से परे, इंसानियत के नजरिए से देखा जाए। यह समय है कि हम पुरुषों की चुप्पी तोड़ें, उनकी पीड़ा को सुनें और उनकी इज्ज़त को उतना ही महत्व दें जितना किसी और की। जब हम यह कह सकें कि “इज्ज़त हर इंसान की है”, तभी हम एक सच्चे समतामूलक समाज की नींव रख पाएँगे। इज्ज़त का मतलब है सम्मान, और सम्मान हर उस शख्स का हक है जो इस धरती पर साँस लेता है। इस दोहरे मापदंड को तोड़ें और एक ऐसी दुनिया बनाएँ, जहाँ हर इंसान की इज्ज़त बराबर हो—चाहे वह पुरुष हो, महिला हो, या कोई और। यह बदलाव न सिर्फ समाज को मजबूत करेगा, बल्कि हर इंसान के दिल में इंसानियत की रोशनी भी जलाएगा।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)