काव्य :
दस्तक
समय के साथ साथ
वो अपना सा लगने लगा था मैंने भी उसे खूब सजाया संवारा था
पर उसके एक डायलॉग ने
सब धराशाई कर दिया
वो एक डोर बैल
मेरा दरवाजा खोलना
उसका पूछना
पहचाना?
मेरा ना में सिर हिलाना
उसका बोलना
मकान मालिक!
सब खत्म,सारे सपने,सारा सजाना संवारना
भूल ही गई थी, कि हम तो किराएदार हैं
उस एक दस्तक ने
सारे भूलेखे झंझोड़ दिए
अचानक से तूफान आ गया मेरे अंदर
अब ये घर नहीं,फ्लैट था
जो अगले महीने खाली करना था
नम आंखों से निहारा उसे
फिर किसी नए फ्लैट को
सजा संवारकर
घर बनाना था
अपने घर का ख्वाब देखना था
ख्वाब देखने के लिए भी
छत तो चाहिए होती है ना
- मिष्टी गोस्वामी , दिल्ली
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