गीत
बूढ़े दादाजी
रोज खाँसते रात-रात भर, अपने दादाजी।।
जब देखों तब मिले लगाते, बीड़ी का सुट्टा।
पाबंदी के हर फंदे से, लगते वह छुट्टा।।
चली जरा-सी हवा लगे तब, कँपने दादाजी।।
रात दिवस करता पूरा घर, उनकी परिचर्या।
लगता वे अब भूल गए है, अपनी दिनचर्या।।
ईश्वर अल्ला लगते जब-तब, जपने दादाजी।।
मर्जी चाहे जब सो जाते,,,,,,,,लेते खर्राटे।
मीन-मेख गिन-गिनकर सबके,जब चाहे डाँटे।।
चलो घुमा दे, कहते दुखते, टखने दादाजी।।
बतियाते तो दोष जमाने के, गिनवाते हैं।
खुलती यादों की पेटी जब, ही मुस्काते हैं।।
बुझी-बुझी आँखों में रखते, सपने दादाजी।।
- भीमराव 'जीवन' बैतूल
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काव्य