काव्य :
ज्ञान सुधा
१)
विश्व की पुण्य धरा पर बहती
हिय-तल को शीतल करती
अंतर को निर्मल करती
अविरल धारा — ज्ञान सुधा !
प्राप्त करो, शांत करो अब
व्याकुल मन की अब क्षुधा !!
२)
लहरें सम यह नदी में बहती,
सृष्टि-ज्ञान सदा प्रवहता,
सोख लो तुम इस सुधा को
शुष्क मृदा सम सहजता ।
बूँद-बूँद अमृत बनकर यह
ज्ञान जीवन में रस भरता,
लहरों सा अविरल बहता
सत्य-प्रकाश सदा झरता।।
३)
परम ज्ञान व्याप्त दिशाओं में,
प्रकाश रूप हर जगह,
अमित, अमिट, अपरिमित उसकी
महिमा गूंजे सर्वदा ।
श्रवण करो उस नाद को तुम
गूँजे जो ब्रह्मनाद सा
मन में उतरे, शांति भरे
अमृत सुधा अविराम सा।।
- नीता श्रीवास्तव श्रद्धा , भोपाल
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