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विजयादशमी व श्री राम भक्त महात्मा गांधी की जयंती के संगम का संदेश,अहिंसा की सत्य अग्नि से हिंसा,असत्य का रावण जलाना चाहिए : प्रसंग-वश में , वरिष्ठ साहित्यकार चंद्रकांत अग्रवाल का कालम


विजयादशमी व श्री राम भक्त महात्मा गांधी की जयंती के संगम का संदेश,अहिंसा की सत्य अग्नि से हिंसा,असत्य का रावण जलाना चाहिए  

  प्रसंग-वश में

वरिष्ठ साहित्यकार चंद्रकांत अग्रवाल का कालम                                                                                                                                                          विजयादशमी की बेला में श्रीराम को वंदन करते हुए, परम राम भक्त,अहिंसा के पुजारी और राष्ट्र पिता महात्मा गांधी और देश के गौरव पुरुष लाल बहादुर शास्त्री का पावन स्मरण करते हुए सभी पाठकों को समर्पित, अपनी आत्मीय शुभकामनाओं संग अपने एक मुक्तक से आज के कॉलम का आग़ाज़ कर रहा हूँ,                                                                                     भीतर का तम हटाना चाहिये,                                 मन मन्दिर में राम बसाना चाहिए।                           सत्य की अग्नि का करके आह्वान,                           असत्य का रावण जलाना चाहिए।                                  क्योंकि वास्तव में तो आज रावण जलाने  का नहीं मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की बुराई पर विजय प्राप्ति का पर्व है और चूंकि आज जब विजयादशमी और श्रीराम के परम भक्त महात्मा गांधी की जयंती का संगम हो रहा है,सम्पूर्ण विश्व, युद्ध हिंसा की महा त्रासदी भोगता हुआ तृतीय विश्व युद्ध की आशंका से भयभीत है,श्रीराम जिनके आराध्य थे, वे महात्मा गांधी भी अपने जीवन के अंतिम शब्द, हे राम, बोलते हुए, एक हत्यारे की हिंसा का शिकार हुए थे,अपने इस मुक्तक की आखिरी दो पंक्तियां मैं आज हेडिंग अनुसार करना चाहूंगा कि          

अहिंसा की सत्य अग्नि का करके आह्वान,हिंसा,असत्य का रावण जलाना चाहिए।    

     क्योंकि तभी युद्धों की हिंसा, सामंतवादी, विस्तारवादी,अहंकार,भ्रष्टाचार आदि की बुराईयों के रावण का नाश हो पायेगा। तभी किसी भी विश्व के किसी भी देश में,चाहे वह भारत ही क्यों न हो लोकतंत्र को तमाशा बनने से रोका जा सकेगा। तभी सत्ता तंत्र को जनतंत्र के प्रति जबावदेह बनाया जा सकेगा। हमें रावण के पुतले के साथ रावण वृत्ति को भी जलाना होगा। वर्तमान परिवेश में चाहे इटारसी जैसा छोटा शहर हो या कोई महानगर, हर जगह बुराईयों की अपनी अलग अलग लंका हैं। रावण को जलाते हुए हम अपनी यह औकात हर बार भूल जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार के रावण की पूजा तो हम खुद हर रोज कर रहें हैं। तब रावण को जलाने का कृत्य हमारा दोहरा चरित्र ही रेखांकित करता हैं। सत्ता का दोहरा चरित्र तो प्राचीनकाल से सर्वज्ञात है। अब ट्रंप ने तो विश्व भर में इसे नए सिरे से स्थापित कर दिया है। पर यह खेल निरंतर और अधिक शर्मनाक होता जा रहा हैं। देश भर में गांवों से लेकर शहरों व महानगरों की सत्ताएं चरित्रहीनता के नित नये कीर्तिमान रच रही हैं। क्षमा करें,आज विजय के हर्ष पर्व पर, गांधी जयंती के साथ विजयादशमी अर्थात बुराई पर अच्छाई की जीत के पर्व पर भी पूर्व प्रधानमंत्री अटल जी के एक शोक गीत की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं-                                   

*हाथों की हल्दी है पीली

पैरों  की मेंहदी कुछ गीली

पलक झपकने से पहले ही सपना टूट गया।

दीप बुझाया रची दीवाली

लेकिन कटी न मावस काली

व्यर्थ हुआ आवाहन। 

स्वर्ण सवेरा रूठ गया, सपना टूट गया।

नियती नटी की लीला न्यारी

सब कुछ स्वाहा की तैयारी

अभी चला दो कदम कारवां

साथी छूट गया, सपना टूट गया।* 

रावण के बड़े बड़े पुतले देश भर में लाखों की तादाद में बन गए हैं,आज शाम,रात्रि में जलाने के लिए। पर ये सभी तैयारियां कितनी बेमानी हैं,यह सच हम समझना  ही नहीं चाहते। विश्व और देश भर में रावण के लाखों पुतले जलाने की तैयारी करते हुए,घीरे धीरे हम भारतीय सभ्यता,संस्कृति,जीवन मूल्यों,गांधी चिंतन का बहुत कुछ स्वाहा करने की भूमिका भी हम रच रहें हैं। अपनी इस लंबी सुविधाभोगिता से,अपनी खामोशी से। तब हमारा विजयादशमी मनाना,गांधी जयंती मनाना,लाल बहादुर शास्त्री को स्मरण करना भी एक मजाक मात्र बन जाता है,रावण का पुतला जलाकर। राजनैतिक अवसरवादिता का जबाव हम व्यक्तिगत व सामाजिक सुविधाभोगिता से कब तक देंगें? अपनी संस्कृति,अपनी अस्मिता की चिंता हम कब करेंगें। अपने ईश्वर/ खुदा में परम सत्य का,अहिंसा परमो धर्म का,हर बुराई के विनाश करने की इच्छा शक्ति का दर्शन हम कब करेंगें? अपने आप को हम कब तक यूँ ही धोखा देते रहेंगें? अपने देश के उत्सवों का मर्म हम कब समझेंगे,उत्सवों का आध्यात्मिक मर्म कब आत्मसात करेंगे। विजयादशमी मनाने के पूर्व ऐसे सवालों के जबाव देने की तैयारी भी हमें करनी होगी। तभी हम मर्यादा पुरूषोत्तम के द्वारा बुराई, अहंकार, अनैतिकता के प्रतीक रावण का वध करने का मर्म समझ पाएंगे,हे राम कहते हुए हिंसा के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुए गांधी चिंतन को आत्मसात कर पाएंगे और इस तरह विजयादशमी और गांधी जयंती को सार्थक रूप से एक साथ मना सकेंगें। उन श्रीराम के द्वारा रावण व लंका विजित करने का उत्सव मनाते हुए, जिनके लिए काव्यात्मक रूप से कहा जाये तो कहूंगा कि ---                          

 *जिसने मर्यादा की उलझी लट सुलझाई,

संबंधों को जिसने नूतन संदर्भ दिए

जिसने निरवंशी सपनों के अपराजित मन

संकल्पों के गुलदस्ते देकर जीत लिए।

जो दर्शन का दर्शन, संस्कृतियों की संस्कृति, 

जो आत्मा की आत्मा, और कारण का कारण,

परमाणु से भी सूक्ष्म, सृष्टि से भी विराट

भावों सा निर्गुण,सगुण वर्ण का उच्चारण। 

पर जिसका जीवन बन हवन दहा,

आदर्शों हित जिसने पतझर का दर्द सहा

जो निर्वासन का विंध्याचल धरकर कांपे,

इस जीवन-मरू में शापग्रस्त नीर-सा बहा।*

क्या हम ऐसे श्रीराम को किंचित भी जानते हें। राजनैतिक राम को जानने व मानने वाले तो इस राम की कल्पना भी शायद आज की परिस्थिति में नहीं कर सकते। विजयादशमी क्या है, देखिए मेरा यह मुक्तक, .....................................                                  शक्ति की अदभुद भावाभिव्यक्ति है विजयादशमी,       

भावों संग नूतन स्पंदन की अभिव्यक्ति है विजयादशमी।                                

यह अन्याय के प्रतिरोध की आत्मा की शक्ति है,      भीतर के प्रकटीकरण की श्रेष्ठ स्वस्ति है विजयादशमी।।                                  

कई बार मैं लिखते लिखते हुए यह सोचकर निराश हो जाता हूँ कि देश भर में इतना कुछ अच्छा साहित्य लिखे जाने,कहे जाने के बाद भी विश्व,देश,समाज में विशेष कुछ नहीं बदल रहा है। श्री राम की मर्यादा,त्याग,गांधी चिंतन ही कहीं खो गया है। आज भी कुछ ऐसा ही लग रहा है। फिर भी सकारात्मक होते हुए,अपने आपको तसल्ली देते हुए, मैं अपने एक अन्य मुक्तक में कहता हूँ,..................                                                                                                                                                     शौर्य, पराक्रम की आराधना है विजयादशमी,             निडरता, तेजस्विता की साधना है विजयादशमी।         अन्याय का अंत अवश्य होता है एक दिन,                 असत्य के प्रतिकार की कामना है विजयादशमी।।  

       पर पुनः जब मुझे लगता है कि मेरे ये भाव अधिक लोग शायद आत्मसात नहीं कर पाएंगे तब, यथार्थ के धरातल पर खड़े होकर,जलते हुए रावण के पुतलों में देश, समाज व हम सब में घुन की तरह रची बसी कई प्रकार की बुराइयों का चिंतन करते हुए, खासकर विश्व भर में विस्तारवादी,सामंती और व्यक्तिगत अहम की प्रदूषित हवाओं से फैल रही युद्धों की विभीषिका,हिंसा के तांडव पर रावण का पुतला जलते देखते हुए भी अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के व्यक्तित्व की खुशबू बरबस ही मेरे जेहन में कौंध जाती हैं,इस लघु कविता की इन पंक्तियां के साथ कालम को विराम देता हूँ -                                                         अब सभी घोड़ों को,

छोड़ देनी चाहिए युद्धिभूमि

मनुष्यों के लिए, 

वे लड़ें या आपस में,

बांट लें सत्ता, वैभव, खुशहाली

धर्म,संस्कार,आदर्श,सब कुछ।

घोड़ों को आचरण करना चाहिए निराला,

किसी यात्रा पर निकल जाना चाहिए। 

क्योंकि वे धारण नहीं कर सकते दोहरा चरित्र।

नहीं बेच सकते स्वयं को 

नहीं रच सकते पाखंड का चक्रव्यूह।           

अंततः परम राम भक्त महात्मा गांधी के इस प्रिय भजन के मुखड़े के साथ सभी पाठकों को पुनः दो पर्वों के संगम पर आत्मीय शुभकामनाएं,                

रघुपति राघव राजा राम,सबको सन्मति दो भगवान।

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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