सती और भारतीय नारी : वर्तमान संदर्भ में
एक सती से दुर्गा और पार्वती तक की यात्रा ....
- डॉ हंसा व्यास ,नर्मदापुरम
भारतीय पौराणिक संदर्भ केवल पौराणिक आख्यान नहीं है वे प्रासंगिक हैं। आज के समय में सती, दुर्गा और पार्वती की कथाएँ केवल पौराणिक आख्यान नहीं रह गई हैं, बल्कि वे नारी सशक्तिकरण, आत्मसम्मान, संघर्ष और साधना की शाश्वत प्रेरणा बन चुकी हैं।
सती हमें अपने स्वाभिमान की रक्षा का संदेश देती हैं।
दुर्गा हमें अन्याय और दमन के विरुद्ध खड़े होने का साहस प्रदान करती हैं।
पार्वती हमें यह सिखाती हैं कि धैर्य और साधना से असंभव भी संभव किया जा सकता है।
इस प्रकार, सती से दुर्गा और दुर्गा से पार्वती तक की यह यात्रा नारी शक्ति की उस अनंत परंपरा का प्रतीक है, जो भारतीय संस्कृति के हृदय में युगों से प्रवाहित होती रही है।
सती का संघर्ष भारतीय नारी का सांस्कृतिक एवं समाजशास्त्रीय विश्लेषण है। भारतीय संस्कृति और पौराणिक साहित्य में सती एक ऐसा आदर्श पात्र है, जिसकी जीवनी नारी के संघर्ष, आत्मबल और स्वाभिमान की दार्शनिक गाथा के रूप में सामने आती है। यद्यपि सती का जीवन एक पौराणिक आख्यान है, किन्तु उसका संदेश सार्वकालिक और सार्वभौमिक है। सती का संघर्ष केवल व्यक्तिगत पीड़ा की कथा नहीं, बल्कि वह भारतीय स्त्री के सांस्कृतिक अनुभव का दर्पण है। यही कारण है कि प्रत्येक भारतीय नारी, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से, सती के जीवन-संघर्ष में अपने जीवन का तादात्म्य खोज लेती है।
भारतीय पौराणिक परंपरा में नारी का स्वरूप केवल जीवन-संवर्द्धन का नहीं, बल्कि शक्ति और सृजन का भी प्रतीक रहा है। सती, दुर्गा और पार्वती—ये तीनों रूप उसी सनातन स्त्री शक्ति की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं, जिनका संबंध एक ओर सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन से है तो दूसरी ओर दार्शनिक और आध्यात्मिक चिंतन से।
सती, दक्ष प्रजापति की पुत्री और आदियोगी शिव की अर्धांगिनी, प्रेम, श्रद्धा और आत्मसमर्पण का अद्वितीय उदाहरण हैं। किंतु उनके जीवन का उतार-चढ़ाव समाज की रूढ़ियों और अहंकार से टकराव का प्रतीक बन जाता है। दक्ष यज्ञ प्रसंग में सती का अपमान और उसके परिणामस्वरूप उनका आत्मदाह केवल व्यक्तिगत घटना नहीं है । यह उस संघर्ष का रूपक है, जिसमें स्त्री अपनी गरिमा और प्रेम के अपमान के आगे स्वयं को मिटा देने तक को तत्पर हो उठती है। सती का यह अंत न केवल शिव के तप और विरक्ति को जन्म देता है, बल्कि ब्रह्मांडीय संतुलन को भी हिला देता है।
सती के विघटन से उत्पन्न रिक्तता ब्रह्मांड में असंतुलन लाती है। असुरों का अत्याचार बढ़ता है और देवगण असहाय हो उठते हैं। यही वह क्षण है जब सती का ही पुनर्जन्म दुर्गा के रूप में होता है। यथार्थ में दुर्गा का उदय – शक्ति का रूपांतरण है।दुर्गा का स्वरूप केवल शिव की अर्धांगिनी तक सीमित नहीं रहता , वह महाशक्ति बनकर प्रकट होता है। महिषासुर मर्दिनी की कथा केवल देवासुर संग्राम नहीं है, बल्कि यह स्त्री शक्ति की दैवीय प्रतिष्ठा का उद्घोष है। दुर्गा यहां नारी के आक्रामक, रक्षक और संहारक रूप को दर्शाती हैं—जहां करुणा और वात्सल्य के साथ-साथ न्याय और शक्ति का संतुलन भी है।
दुर्गा के उग्र रूप के बाद वही शक्ति पार्वती के रूप में हिमालय की कन्या बनकर अवतरित होती है। पार्वती का पुनर्जन्म सौंदर्य और तपस्या का अद्भुत संगम है। पार्वती का जन्म प्रकृति, सौंदर्य और कोमलता का प्रतीक है। वे हिमालय और मेना की पुत्री हैं, जिनके माध्यम से शक्ति का नया अध्याय प्रारंभ होता है। पार्वती की तपस्या शिव को पुनः गृहस्थ जीवन की ओर ले आती है। यहाँ कथा केवल एक दैवी विवाह की नहीं है, बल्कि संन्यास और संसार के संतुलन की है। पार्वती के रूप में स्त्री का धैर्य, सहनशीलता, समर्पण और साधना सामने आता है।
सांस्कृतिक और दार्शनिक निहितार्थ में सती का अंत नारी की गरिमा और आत्मसम्मान के लिए अंतिम बलिदान का प्रतीक। दुर्गा का उदय नारी शक्ति के दैवी, आक्रामक और रक्षक रूप का उद्घोष। पार्वती का जीवन प्रेम, तपस्या और जीवन-संतुलन की पुनःस्थापना है।
इन तीनों रूपों का परस्पर संबंध यह दर्शाता है कि स्त्री केवल एक भूमिका में नहीं बंधी, बल्कि समय और परिस्थिति के अनुसार स्वयं को रूपांतरित कर ब्रह्मांडीय संतुलन बनाए रखती है। सच तो यह है कि एक नारी माँ ,पत्नी,बहन, बेटी के रुप में समाज के रिश्तों की गरिमा का संतुलन बनाए हुए है।
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