काव्य :
घर
कल तक जो घर था
आज मकान हो गया है
जहाँ प्यार ही प्यार बसता था
वहाँ स्वार्थ का बोलबाला है
जब अलग हो कर भी एक थे
आज एक हो कर भी सब अलग हैं
कभी जहाँ एक चूल्हा जलता था
अब कई चूल्हा हो गया है
जहाँ दुःख में सब जुट जाते थे
अब कोई भूले से भी नहीं आता है
तब इंसान को इंसान से
प्यार था
अब दौलत से प्यार होता है
- डॉ मंजू लता , नोयेडा
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