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हर योजना पर साया: म्युल खातों से सामाजिक न्याय पर हमला - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)


 

हर योजना पर साया: म्युल खातों से सामाजिक न्याय पर हमला

[एक क्लिक की ठगी, करोड़ों की लूट—कब जागेगा सिस्टम?]

       देश का हर कोना, जहाँ गरीब किसान, मजदूर और वृद्ध अपनी छोटी-छोटी उम्मीदों को सरकारी योजनाओं से बाँधते हैं, आज एक अदृश्य दुश्मन के चंगुल में फँस रहा है। म्युल बैंक खातों का यह घृणित खेल, जो हाल ही में राजस्थान के झालावाड़ में बेनकाब हुआ, न केवल सरकारी खजाने को लूट रहा है, बल्कि उन करोड़ों लोगों का भरोसा तोड़ रहा है, जो इन योजनाओं को अपनी जिंदगी की आस मानते हैं। यह महज साइबर अपराध नहीं, बल्कि सामाजिक न्याय पर क्रूर प्रहार है, जो हमें यह सवाल उठाने को मजबूर करता है—क्या हमारा डिजिटल भारत वाकई हर नागरिक के लिए सचमुच सुरक्षित है?

म्युल बैंक खाते साइबर अपराधियों का वह खतरनाक हथियार हैं, जो लालच और फर्जी पहचान के जाल में फँसाकर गरीबों, बेरोजगारों और अनजान लोगों के खातों को अपराध का औजार बना लेते हैं। झालावाड़ में पकड़े गए अंतरराज्यीय गिरोह ने सैकड़ों फर्जी खातों के जरिए करोड़ों रुपये की सरकारी राशि हड़प ली। फर्जी आधार, पैन और मोबाइल सिम के दम पर ये अपराधी डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) की राशि को म्युल खातों में डालकर पलक झपकते निकाल लेते हैं। सबसे दर्दनाक यह है कि अक्सर खाताधारक को भनक तक नहीं होती कि उसका खाता मनी लॉन्ड्रिंग का हिस्सा बन चुका है। अपराधी लेयरिंग तकनीकों से पैसों को एक खाते से दूसरे में, फिर डिजिटल वॉलेट और नकदी में बदलकर अपने निशान मिटा देते हैं।

डीबीटी, जो पारदर्शिता और तेजी का वादा लेकर आया था, आज अपराधियों के लिए स्वर्णिम अवसर बन गया है। कमजोर लाभार्थी सत्यापन इसका सबसे बड़ा कारण है। एक बार खाता पंजीकृत हो जाए, तो उसकी नियमित जाँच नहीं होती। फर्जी दस्तावेजों से खाता खोलना और उसे डीबीटी से जोड़ना बेहद आसान हो गया है। मोबाइल आधारित ओटीपी सत्यापन भी सिम-स्वैपिंग या चोरी हुए फोन के कारण निष्प्रभावी हो जाता है। बैंकों में उन्नत व्यवहारिक एनालिटिक्स की कमी और कुछ मामलों में कर्मचारियों की मिलीभगत इस जाल को और पुख्ता करती है। जब एक खाते में बार-बार डीबीटी की राशि आती है और तुरंत निकाल ली जाती है, तो इसे पकड़ने में आधुनिक तकनीक की कमी साफ झलकती है।

इस जाल का असर केवल आर्थिक नहीं, बल्कि सामाजिक ताने-बाने को भी तहस-नहस कर रहा है। वह किसान, जो बीज के लिए सरकारी सहायता की बाट जोहता है, वह वृद्धा, जो पेंशन से अपनी दवाओं का खर्च चलाती है, या वह परिवार, जो आपदा राहत की आस में जीता है—इन सबके हक पर डाका डाला जा रहा है। यह महज धन की चोरी नहीं, बल्कि विश्वास की नींव को खोखला करने वाला अपराध है। लोग सरकारी योजनाओं को कागजी तमाशा मानने लगे हैं, जिससे सामाजिक असमानता का दुष्चक्र और गहराता जा रहा है। यह स्थिति देश की आर्थिक स्थिरता और सामाजिक एकजुटता के लिए घातक खतरा बन रही है।

इस जाल को तोड़ने के लिए एक सशक्त और समग्र रणनीति जरूरी है। सबसे पहले, एकीकृत सत्यापन प्रणाली लागू हो, जो आधार, पैन और मोबाइल नंबर की हर छह महीने में स्वचालित जाँच करे। बैंकों में वास्तविक समय की व्यवहार निगरानी शुरू हो, ताकि संदिग्ध लेन-देन तुरंत पकड़े जाएँ। बड़े भुगतानों के लिए बायोमेट्रिक सत्यापन अनिवार्य हो। ग्रामीण क्षेत्रों में साइबर साक्षरता अभियान जोर-शोर से चलाए जाएँ, ताकि लोग अपने खाते और ओटीपी को साझा करने से बचें। बैंकों को नियमित केवाईसी अपडेट और फर्जी दस्तावेजों के खिलाफ कठोर दंड लागू करना होगा। हर डीबीटी भुगतान के बाद लाभार्थी के लिए व्हाट्सएप या आईवीआर जैसे सरल फीडबैक चैनल हों, ताकि अनियमितता की शिकायत तुरंत दर्ज हो सके।

झालावाड़ पुलिस की कार्रवाई एक सशक्त मिसाल है। इसने न केवल एक विशाल साइबर गिरोह का भंडाफोड़ किया, बल्कि साइबर इंटेलिजेंस और तकनीकी कौशल की असीम ताकत को भी रेखांकित किया। मगर यह महज एक शुरुआत है। हर जिले को ऐसी सतर्कता और संसाधनों की दरकार है। यह जाल तोड़ना सिर्फ पुलिस का कर्तव्य नहीं, बल्कि हर नागरिक, बैंक और प्रशासन की साझा जिम्मेदारी है। केवल एकजुट प्रयास और अडिग संकल्प ही इस अपराध के खिलाफ अभेद्य दीवार खड़ी कर सकते हैं।

यह अपराध हमें कठोर सवाल पूछने को विवश करता है—क्या हमारा डिजिटल भारत वाकई हर नागरिक को गले लगाने वाला है? जवाब साफ है—अभी नहीं। मगर यह असंभव भी नहीं। हमें एक ऐसी व्यवस्था चाहिए, जो तकनीक और नैतिकता का अटूट गठजोड़ हो। प्रत्येक नागरिक को यह समझना होगा कि उसका एक छोटा-सा कदम—चाहे वह अपने खाते की सुरक्षा हो या संदिग्ध गतिविधि की सूचना देना—इस अपराध के जाल को चकनाचूर कर सकता है। सरकार को योजनाओं की सुरक्षा को वही प्राथमिकता देनी होगी, जो उनकी घोषणा को दी जाती है।

जब तक हर पात्र व्यक्ति का हक उस तक नहीं पहुँचता, कल्याणकारी राज्य का स्वप्न अधूरा ही रहेगा। इस कुटिल जाल को तोड़ने का अटूट संकल्प लें—एक ऐसा संकल्प जो न केवल अपराधियों को सलाखों के पीछे लाए, बल्कि हर नागरिक के हृदय में यह अडिग विश्वास जगाए कि उसका हक अखंड और सुरक्षित है। यह केवल एक लड़ाई नहीं, बल्कि एक नए युग की शुरुआत है—एक ऐसे भारत की नींव, जहाँ हर सरकारी योजना, हर सपना, और हर हक अपने सच्चे हकदार तक बिना किसी बाधा के, पूर्ण पारदर्शिता और निष्ठा के साथ पहुँचे। यह संकल्प न केवल अपराध के खिलाफ एक दीवार खड़ी करेगा, बल्कि सामाजिक न्याय और विश्वास की एक मजबूत बुनियाद भी रचेगा, जो हर भारतीय के जीवन को उज्ज्वल बनाए।

 - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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