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श्रीकृष्ण-राधिका के महारासोत्सव शरदपूर्णिमा पर चांदनी करती है अमृतबरसा - आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकारब, नर्मदापुरम


 

श्रीकृष्ण-राधिका के महारासोत्सव शरदपूर्णिमा पर चांदनी करती है अमृतबरसा

       - आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार

             सनातन संस्कृति के प्रत्येक पर्व-त्यौहार के पृष्ट में गहन तत्वज्ञान व् धर्म का मर्म और दर्शन होता है आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की यह शरद पूर्णिमा स्वास्थ्य संरक्षण की दृष्टि से जीवन में स्वस्थ्य- आरोग्यदायी मुहूर्त विशेष के लिए महत्वपूर्ण है। शरद पूर्णिमा की रात मैं चंद्रमा अपनी पूर्ण सोलह कलाओं से पूर्ण होता है। चंद्रमा की ये 16 कलाएं हैं- अमृत, मनहा, पुष्प, पुष्टि. तुष्टि, धृति मारानी, पेदिका काति, ज्योसना, श्री. प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत, प्रतिपदा आश्चिन माह के शुक्ल पक्ष की शरद पूर्णिमा की चांदनी रात चंद्रमा धरती के बहुत नजदीक होता है और चांदनी रात को चंद्रदेव अपनी इन सोलह कलाओं की अमृतवर्षों करता है और लोग अपने घरों की छतों पर खुले आकाशतले शरद पूर्णिमा की रात में गाय के दूध से बनी खीर को चंद्रमा कि चादनी में रखकर उसे प्रसाद स्वरूप ग्रहण करते है। वास्तव में देखा जाए तो शरद पूर्णिमा ऋतु परिवर्तन का विशेष पर्व भी होता है जिसमें शरद पूर्णिमा के दिन से वर्षाऋतु की समाप्ति और शरद का आगमन होता है। शरद ऋतु की इस पूर्णिमा को पूर्ण घट का अश्विनी नक्षत्र से संयोग होता है, जो प्रथम नक्षत्र है, जिसके स्वामी अश्विनीकुमार है जो आयुर्वेद के देव है तथा शरद की रात्री को जो खीर आकाश के तले रखी जाती है वह खीर अमृतबर्षा के बाद  पृथ्वीवासियों को आरोग्य व उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु प्रदान करती हैं, जिसमें शरद की महारात्रि में श्रीकृष्ण राधा रानी की महारास लीला का आनंद-उल्लाश और प्रेम भी खीर में सुवासित हो सभी के लिए यह खीर एक महावरदान है।

      हिन्दू धर्म और संस्कृति में यह शरदोत्सव का लोकपर्व आध्यात्मिक ही नहीं अपितु भगवान श्रीकृष्ण और राधिकाजी की अनुपम महारास लीला की पुनरावृत्ति का भी महापर्व है। बृजभाषा का रास सम्बन्धी साहित्य अक्षुण्य है जिसमे श्रीकृष्ण का शरदकालीन रास का विसद वर्णन है ओर नृत्य के बिना रास की कल्पना अधूरी है। संसार के इस खुले रंगमंच के प्रथम अभिनीत रास की परंपरा का प्रमाण श्रीमदभागवत पुराण में एक कथा में मिलता है की शरद निशा में यमुना पुलिन पर श्रीकृष्ण ने रास का आयोजन किया और तभी से हर शरदपूर्णिमा पर वृन्दावन के निधि वन में आज भी अर्द्धरात्रि को श्रीकृष्ण का राधा जी ओर अपनी सखी गोपियों के साथ रासलीला रचाने मौजूद रहते है। जहा तुलसी का हर पेड़ जोड़े मे है ओर मान्यता है की रात के ये गोपियों के रूप मे बदल जाते है ओर सुबह फिर से पौधे बन जाते है। कृष्ण ने प्रगट होकर जितनी गोपियाँ थी उतने रूप रखकर उनका सानिग्ध कर रास रचाया ओर उनको प्रसन्न किया। यही नित्य रास का प्रथम सोपान कहा गया है जिसमें गायन, वादन ओर नृत्य तीन विधाओं को शामिल किया गया है ओर श्रीकृष्ण द्वारा किए जाने से यह “नित्यरास” के रूप में स्थापित हुआ। रास के आदिप्रणेता श्रीकृष्ण है तभी रास के द्वितीय सौपान में कृष्ण के जीवन की महारास लीला शताब्दियों से शरदपूर्णिमा को किये जाने का प्रमाण देखा जा सकता है जिसमें आज भी विज्ञान निधि वन के रहस्य को सुलझा नहीं सका है जहा बने मंदिर में आज भी कृष्ण शयन करने आते है, प्रसाद ग्रहण करते है, दातौन चवाई हुई मिलती है, इंसान तो क्या जानवर ओर पशु पक्षी भी रोज रात को निधिवन से दूर रहते है।

        शरदपूर्णिया अर्थात महासरस्वती व कार्तिक पूर्णिमा अर्थात महाकाली के बीच की कडी हर मनुष्य को एक दूसरे से जोड़कर रखने वाली कडी  है। जैसे शरद का सौन्दर्य श्री का सौन्दर्य है,सीता का सौन्दर्य है,राधा का सौन्दर्य है, शारदा का सौन्दर्य है, वही अलौकिक सौन्दर्य नवदुर्गा की भक्ति पूजा अर्चना का भी सौन्दर्य बन जाता है। हिन्दू पंचांग के अनुसार आश्विन मास की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा, कोजागरी पूर्णिमा, कौमुदी व्रत, कुमार उत्सव, कमला पूर्णिमा या रास पूर्णिमा कहते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, देवी लक्ष्मी इसी पूर्णिमा तिथि को समुद्र मंथन से उपन्न हुई थीं। ज्योतिष के अनुसार, इसी दिन चन्द्रमा सोलह कलाओं से परिपूर्ण होकर आकाश से अमृत वर्षा करते हैं। शरद पूर्णिमा की तिथि पर माता लक्ष्मी, कुमार कार्तिकेय, मीराबाई और महर्षि वाल्मीकि का जन्मदिवस मनाया जाता है, इन सबमें महारास की शरद पूर्णिमा की चांदनी में भगवान श्रीकृष्ण और उनकी  आल्हादित करने वाली गुह़ विद़धा की प्रर्वतक अपार ऐश्वर्य की भंडार श्रीराधिके जी अदृश्य रूप में अपनी समस्त चैतन्य शक्तिया सहित उपस्थित होती हैं, जिनमें अनेक ग्वालिनी नित्य सिद्धा है इन्हें कन्या  रूप में और पोढ़ा रूप में श्रीकृष्ण ने स्वीकारा है। जिनका विवाह नहीं हुआ है वे कन्याये है तथा जो ग्वालिनी विवाहित है वे पोढ़ा है।

        प्रेमभक्ति में पोढ़ाओं को श्रेष्ठतम मानकर इन्हें  नित्यप्रिया,साधनपरा और देवी माना गया है। राधाजी के स्वरूप को सर्वश्रेष्ठ् महाभाव स्वरूपा कहा गया है जिनकी आठ परमश्रेष्ठ सखिया ललिता, विशाखा, चंपककला, चित्रा सुदेवी, तुंगविद़या, इन्दुलेखा व रंगदेवी है, जो गोपियों व ग्वालिनों में अग्र्रण्य है। शरदपूर्णिमा की झिलमिलाती रोशनी में राधाकृष्ण अपनी समस्त कलाओं के साथ महारास करते है और आकाश में चन्द्रमा अपनी 16 कलाओं के साथ अनुपम चांदनी की छटा से अपने आवृत क्षेत्र में धरा को अमृतमयी रस की बूंदों से स्नान कराता है, जिसे खीर में आहूत कर घर-घर अमृत का महाप्रसाद पाने का महोत्सव मनाया जाता है, जिसे ग्रहण कर सभी नव् ऊर्जा से भर जाते है। एक प्रसंग के अनुसार च्यवन ऋषि को आरोग्य का पाठ और औषधि का ज्ञान अश्विनीकुमारी ने ही दिया था। यही जान आज हजारों वर्ष बाद भी हमारे पास अनमोल धरोहर के रूप में संचित है। अश्विनीकुमार आरोग्य के स्वामी है और पूर्ण चटमा अमृत का स्रोत। यही कारण है कि ऐसा माना जाता है कि इस पूर्णिमा का ब्रहमाह से अमृत की वर्षा होती है।

     शरदपूर्णिमा का सौन्दर्य ही है जिसमें ब्रजेश्वरी श्रीराधिके सम्पूर्ण यज्ञों तथा शुभकर्मों की ईश्वरी होते हुए महारास की परम शोभा होती है तथा यही राधिका विष्णुलोक की अधिष्ठात्री देवीलक्ष्मीजी से पूजित होकर श्रीलक्ष्मी. पार्वतीजी और सरस्वती को वर देने वाली है। श्रीराधे जी जब शरदपूर्णिमा के महारास में समस्त कलाओं- विधाओं के उपस्थित होती है तब उनके चरणकमलों से अनेक निगमागम मन्त्रों की ध्वनि के सामान सुन्दर झंकार करने वाले स्वर्णमय नुपुर गूंजते हुए अत्यंत मनोहर राजहंसों की पंक्ति के सामान प्रतीत होते है तब शरदरात्रि की इस पावनवेला में धरा पर प्रवाहित होने वाली वायु परम शक्ति की उपस्थिति से मधुर-सुवासित हो परम कल्याणकारी होती है। उस समय हर व्यक्ति लक्ष्मी की अगवानी में अपने-अपने घर की देहरी पर दीप रखता है और अपने घरों की छतों-मचान पर श्री का प्रतीक खीर रखकर चांदनी से अमृत बरसने की प्रतीक्षा करता है। अमृत की बुँदे चांदनी से बरसकर खीर में प्रवेश करती है वही उसी समय माता लक्ष्मी धरा पर विचरण को निकलती है और महारास का अलौकिक आनंद शरदपूर्णिमा को अजर अमर कर अमृतरस की वर्षा से जगत का भी कल्याण कर महाप्रसाद का वरदानरूपी उपहार प्रदान करता है।

      पौराणिक मान्यता है कि महाभारत के भीषण संग्राम में हुए रक्तपात के बाद पांडवों को मानसिक रूप से व्यथित थे और अंदर ही अन्दर गहन पीड़ा से जले जा रहे थे तब श्रीकृष्ण की सलाह पर वे द्रोपदी सहित शरद पूर्णिमा को गंगा स्नान के बाद संताप से मुक्त हो सके। उनकी वेदना का ताप शरद पूर्णिमा की रात्रि के चंद्रमा की सोलह कलाओं से युक्त होने तथा सोलह कलाओं के पूर्णावतार योगीश्वर श्रीकृष्ण इ राधिका जी के महारास कर इस पूरी पृथ्वी की प्रेम और आनन्द से पूर्ण कर दिया, जिसे हम मनुष्य सामान्य आखों से दृष्टिगत नही कर सकते,यह सब दिव्यानुभूति सिर्फ उन्ही को संभव है जिसपर श्रीकृष्ण कृपालु हो दिव्यदृष्टि से भर देते है। शरद पूर्णिमा का एक नाम कोजागर पूर्णिया भी है, कोजागर का साब्दिक अर्थ है कौन जाग रहा है। मान्यता है कि जो इस शरदपूर्णिमा की रात जागकर माँ लक्ष्मी की आराधना-साधना कर व्रत रखते है उनपर माँ लक्ष्मी कृपालु होकर अपना सर्वस्य न्योछावर कर देती है। लोग लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए इस दिन अपने घरों में उनके स्वागत के लिए सुंदर रंगीली रंगोली सजाते है।

      शरद पूर्णिमा अनेक उत्साहित करने वाले पर्वों व् मुहूर्तों के कारण स्वास्थ्य की दृष्टि उत्तम कही गई है जिसमें शरद की रात्रि को क्षितिज से अमृत की रश्मियां संजीवनी बनकर बरसने का प्रसंग महत्व रखता हैं। शरद पूर्णिमा की रात चन्द्र की रश्मियाँ पृथ्वी पर छिटक कर अन्न-जल व वनस्पति को अपने औषधीय गुणों से भी परिपूर्ण करती है जिससे इनमें भी नया प्राणतत्व आ जाता है। इसीलिए प्राचीनकाल में शरद पूर्णिमा की रात को आयुर्वेद के मनीषियों द्वारा विभिन्न जड़ी बूटियों से जीवनदायी औषधियों के निर्माण की परम्परा शुरू की गयी थी, जो आज भी कायम है। भगवान श्रीकृष्ण गीता अध्याय पंद्रह के श्लोक 13 में कहते हैं- पुष्णामि चौषधी: सर्वा: सोमो भूत्वा रसात्मक: || 13|| अर्थात यह मेरी ही शक्ति है जो पृथ्वी लोक में जीवों के लिए उपयुक्त पदार्थों की व्यवस्था करती है। इसके अतिरिक्त चन्द्रमा की चांदनी जिसमें अमृत की गुणवत्ता है, सभी पेड़-पौधों जैसे जड़ी-बूटियाँ, सब्जियाँ, फल और अनाज को पोषित करती है। अर्थात मैं ही रसस्वरूप अमृतमय चन्द्रमा होकर सम्पूर्ण औषधियों को अर्थात वनस्पतियों को पुष्ट करता हूं। उनका यह कथन भी शरद पूर्णिमा के महत्व को प्रतिपादित करता है।

 - आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार

श्री जगन्नाथधाम काली मंदिर के पीछे,ग्वालटोली,

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देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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