काव्य :
डिस्पोजल
संस्कृति में हमारी
जब से आया डिस्पोजल
ज़िन्दगी डिस्पोजल हो गई
डिस्पोजल की तरह आकर्षण शरीर का
थी
देखते ही इलू इलू करते
मां बाप परिवार को छोड़
एक दूजे से जुड़ते
कभी बात सगाई तक
पहूंचती
कभी शादी तक
घर हो भी जाए शादी
चार , छः दिन या महीने
में नौबत तलाक तक पहुंच जाती
रिश्ते डिस्पोजल हो गये है
हम चालीस साल पुरानी
चीजें भी सहेज कर रखते थे
चाहे जितना मनमुटाव हो
रिश्तों में दरार तक न आती
न मां बाप को वृद्धाश्रम भेजते
न तलाक होता
कर दो ज़िन्दगी से अलविदा डिस्पोजल
लौटा दो फिर वही पुराना ज़माना
न पर्यावरण बिगड़ेगा न परिवार।
- चन्दा डांगी रेकी ग्रेंडमास्टर
मंदसौर मध्यप्रदेश
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