लघुकथा :
पहला हलवा
नई-नई शादी हुई थी मेरी। रसोई में कदम कांपते थे—चाय भी बनाओ तो लगता जैसे कोई परीक्षा दे रही हूँ। एक दिन सासु माँ बोलीं, "आज हलवा बना लो, चाची सास आएंगी।"
मैंने मन लगाकर बनाया—पर घबराहट में हलवा कुछ ज्यादा ही भुन गया, कहना चाहिए कि जल गया। खुद को कोसती रही, सोच रही थी अब क्या होगा।
तभी सासु माँ आईं। बिना कुछ कहे जले हलवे की कड़ाही ली, उसे स्टोर में छुपा आई फिर हँसी में बोलीं, "तू रुक, मैं देखती हूँ।" फिर चुपचाप अपना बनाया हलवा निकाल कर रख दिया।
चाची सास आईं। तारीफ़ों की बौछार करने लगीं, "बहू तो बड़ी सोंधी मिठास बनाती है!"
मैं आँखें झुकाए खड़ी थी। तभी चाची सास ने पूछा, "बहू, कैसे बनाया?"
मैं कुछ कहती, उससे पहले सासु माँ मुस्कुरा कर बोलीं, "बहू से सीखेगी तू अब , तू तो खुद इतना अच्छा बनाती है, सारा परिवार उंगलियां चाटता रह जाता हैं।"
फिर मुझे वहां से हटाने के लिए बोली, "जा अपनी पैकिंग कर ले कल तुम्हें जाना है। मैं और तेरी चाची इतने बत्तियाते हैं। एक घंटे में फिर चाय पिला देना।"
वो एक पल नहीं था, जीवन का पाठ था। जब जब मैं उलझती गई, वो सुलझाती गईं।
बिना कहे, बिना जताए।
आज जब रसोई में आत्मविश्वास से कुछ नया पकाती हूँ, तो याद आता है वो पहला हलवा—और मेरी सासु माँ की मिठास।
- अंजना गर्ग , दिल्ली
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