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व्यंग्य : तथास्तु! - विवेक रंजन श्रीवास्तव , भोपाल


 

व्यंग्य : 

तथास्तु!

 

- विवेक रंजन श्रीवास्तव 

व्यंग्यकार, आलोचक , भोपाल 

आजकल न्यूयॉर्क में 

        सोशल मीडिया की चौपाल में इन दिनों इच्छाओं का मेला लगा है। लोग अपनी वर्तमान नियति से इतने ऊबे हुए हैं कि अब वे आकांक्षा नहीं, अवतार मांगते हैं। काका हाथरसी की तरह कोई याचना कर रहा है कि अगले जनम मोहे कुत्ता कीजो , फेसबुक दोस्तो की आभासी भीड़ तुरन्त दुम हिलाते इमोजी लेकर प्रशंसा करती दौड़ पड़ती है। जैसे कुत्ता बनना अब सरकारी नौकरी की तरह स्थायी सेवा हो, बस तनख्वाह की जगह मेम साहब की गोद में प्यार और बिस्किट मिल जाएं तो जीवन सफल। कोई लिखता है काश हम सायकिल होते और लोगों का बोझ उठाते। अपना कहना है भाई तुम तो अभी भी रोज किसी न किसी के पैडल पर घूम ही रहे हो, बस घंटी फिट नहीं  है, तुम बस आवाज नहीं उठा सकते । उधर उल्लू बनने की आकांक्षा रखने वाले बेहिसाब हैं जो रात भर जागकर मोबाइल की नीली रोशनी से ज्ञानार्जन करते रहते हैं जैसे अंधकार में, डेटा पैक ही उनका असली तत्वज्ञान हो। उनकी सोच है उल्लू बनते ही माता लक्ष्मी की मेहरबानी होगी,जो इंसान रहते नहीं मिल पा रही।

ये अनोखी कल्पनाएं असल में महज सीधी इच्छाएँ नहीं, देश की सामूहिक थकान की व्यंजना भरी डिजिटल चिठ्ठी हैं। जो अपने जीवन पर नियंत्रण नहीं कर पाता वह कल्पना में उड़ान भर लेता है। अपनी तनख्वाह नहीं बढ़ा सकता तो जन्म ही बदल देना चाहता है। नौकरी में प्रमोशन अटका है तो सोचता है कि कुत्ता बन कर कम से कम बिना परफॉर्मेंस अप्रैजल के लोग दुलरा तो करेंगे।

ऐसे माहौल में तथास्तु एक विलक्षण शब्द की तरह उभर आया है। जिसे पहले ऋषि मुनि , देवता कहा करते थे, अब डिजिटल जनता तथास्तु कह कर अगली इंस्टा पोस्ट पर बढ़ लेती है। पहले तपस्या होती थी, अब टाइम लाइन पर सर्फिंग , इनबॉक्स चैटिंग और मटर गश्ती होती है। पहले वरदान मिलते थे, अब व्यंग्य होते हैं। जब कोई लिखता है कि अगले जनम में मुझे कुत्ता बना देना, दुनिया मुस्कराकर कहती है तथास्तु और अंदर ही अंदर सोचती है कि भाई अभी भी आधी दुनिया भौंक भौंक कर , या दम हिलाकर , कटखना बनकर ही तो जीवन चला रही है, तुम्हें किस बात की कमी रह गई है।

सायकिल बनने की चाह रखने वालों को समाज और भी प्यार से तथास्तु कहता है और साथ में पंचर होने का शाश्वत आशीर्वाद भी दे देता है। जैसे कह रहा हो कि भाई तुम सायकिल बनोगे तो सड़कें तुम्हें चलाएंगी, तुम नहीं। फिर कभी किसी के हाथ पर कब्जा, कभी किसी के कंधे पर घर लौटना, कभी चौराहे पर लटक कर खड़ा रहना। और हां, तुम पर ताला भी लगेगा, क्योंकि विश्वास तो आदमी पर से उठ चुका है, सायकिल पर क्या होगा।

उल्लू बनने की सनक तो और भी दिलचस्प है। रात भर जागने वालों की यह जाति वैसे भी देश में तेजी से बढ़ रही है। घोंसला कोई नहीं बनाता, सब मोबाइल चार्जिंग स्टेशन पर तार जोड़े , फास्ट चार्जिंग की प्रतीक्षा में बैठे होते हैं। ज्ञान कम, नज़रें लाल , प्रवचन ज्यादा , कुछ ऐसी पोस्ट करने की ललक जो लोगों का सहज ध्यानाकर्षण करे। ऐसे में जब कोई कहता है कि काश मैं उल्लू होता, टिप्पणीकारों की टोली लिखती है तथास्तु और साथ में यह भी जोड़ देती है कि समय  , समाज पहले ही उल्लू बना चुका है, अब बस पंख लगाने की देर है।

असंतुष्ट मन का असल व्यंग्य तो यह है कि लोग जो चाहते हैं वह बनते नहीं और जो नहीं चाहते वही करते जाते हैं।  हिंदी में आत्मकथा की विधा को बढ़ाते हुए लेखक ने व्यंजना में , कुत्ता बनने की इच्छा जताई नहीं कि दुनिया आपकी वफादारी के प्रूफ मांग बैठती है। सायकिल बनने की चाह  लिखी ही कि लोग आपकी पीठ पर राजनीति के पोस्टर चिपकाने लगेंगे। उल्लू बनने की कल्पना की नहीं कि अगली ठगी में आपकी ही फोटो किसी फ्रॉड ग्रुप में प्रेरणादायी उदाहरण के रूप में दिखाई देगी।

सबकी तथास्तु में समय का  तंज छिपा है। यह मिठास में लिपटा करारा थप्पड़ है। दुनिया कहती है कि तुम्हारी इच्छा मंजूर, पर जिंदगी अपनी मर्जी से ही चलेगी। तुम कुत्ते बनना चाहो या देवदूत, समाज तुम्हें वही बनाएगा जो उसकी सुविधा में फिट बैठे।

लेखक बेचारा यह सब देखता है तो सोचता है कि चलो वह भी एक पोस्ट डाल दे कि अगले जनम मोहे व्यंग्य की किताब बनाइए ताकि पाठक पन्ने पलटते हुए हंसते हंसते गम्भीर हो जाएं और तथास्तु कहकर  नियति पर मुहर लगा दें। पर दुनिया का असली खेल यही है कि इच्छाएँ मनुष्य लिखता है और तथास्तु समय लिखता है।

सो अगली बार जब किसी की उछलती कल्पनाओं वाला पोस्ट देखिएगा तो मुस्कुराइएगा और मन ही मन कहिएगा तथास्तु क्योंकि यही एक शब्द  कॉमेडी और फिलॉसफी दोनों का मूल बन गया है। जीवन की विडम्बनाओं पर यह शब्द ऐसा है कि आदमी समझ पाए या न पाए,  दुनिया आगे बढ़कर अगला वरदान देने तैयार हो जाती है।

 विडंबना  है कि इच्छाओं का यह मेला जितना रंगीन दिखता है उतना ही मानवीय आकांक्षाओं की कमी भी उजागर करता है। कुत्ता बनने की चाह, सायकिल बनने का लोभ, उल्लू बनने का लालच सब इसलिए हैं कि इनसे कोई सीधी जिम्मेदारी नहीं जुड़ती बस प्रहसन है, लेकिन जीवन तो ऐसा नहीं ही हो सकता ।

  कोई राम बनने की इच्छा नहीं करता जो अपनी निजी खुशियों को त्याग कर दूसरों का मार्ग प्रशस्त करे। कोई गांधी नहीं बनना चाहता जिसकी एक एक सांस सत्य के बोझ तले त्याग शांति सद्भाव के लिए  है। कोई भगतसिंह बनने की कल्पना नहीं करता जो अपनी पूरी जवानी देश में किसी अनदेखे सुनहरे कल की आशा में न्योछावर कर दे। 

जिस दिन ऐसी सकारात्मक आकांक्षाएं बलवती होंगी हम भी तथास्तु कहेंगे ।

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देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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