काव्य :
हाय रे ठंडी
ओढ कथरिया लेटी अम्मा,
ऐसे नौने जाड़े में!!
फटी सदरिया पहने दद्दा,
खूब सिकुड़ रए आड़े में!!
थर थर कांप रही है कक्की,
पैर कांप रए ठाडे में!!
ओढ कथरिया...
कक्का जी कल खेत पे सोए,
ठंडी घुस गई हाडे में!!
तीन दिना से सूरज गायब,
छुप गए शायद बाड़े में!!
थर थर कांप रहे लल्ला जी,
नही फायदा काढ़े में!!
कल रात चल बसी डुकरिया,
भीड़ जुटी पिछवाड़े में!!
ओढ कथरिया..
अब तो सबको एसो लग रओ,
हम बस गए पहाड़े में!!
- सुरेश गुप्त ग्वालियरी
विंध्य नगर बैढ़न
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