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चर्चा में अरावली ∆ अरावली पर्वत श्रृंखला: क्या होगा ? - विजय प्रकाश पारीक , विशेषज्ञ एवं स्तंभकार


चर्चा में अरावली ∆ 

अरावली पर्वत श्रृंखला: क्या होगा ?


 - विजय प्रकाश पारीक 

विशेषज्ञ एवं स्तंभकार 


(प्रस्तुति - डॉ घनश्याम बटवाल मंदसौर)

      अरावली पर्वत श्रृंखला, भारत की भूमि पर खड़ी एक प्राचीन साक्षी, आज एक संकट का सामना कर रही है। यह श्रृंखला न केवल भूगर्भीय इतिहास की एक जीवंत किताब है, बल्कि उत्तर भारत के पर्यावरणीय संतुलन की आधारशिला भी है। नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट के एक महत्वपूर्ण निर्णय ने इस मुद्दे को राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में ला दिया है। इस निर्णय ने अरावली की परिभाषा को पुनर्निर्धारित किया, जिससे पर्यावरणविदों, नागरिकों और राजनीतिक दलों में चिंता की लहर दौड़ गई। 

अरावली की कहानी करीब 1.8 अरब वर्ष पुरानी है, जब पृथ्वी की टेक्टॉनिक प्लेटें टकराती हुईं इस श्रृंखला को जन्म दे रही थीं। आज यह श्रृंखला गुजरात से दिल्ली तक 692 किलोमीटर तक फैली हुई है, और राजस्थान, हरियाणा तथा दिल्ली-एनसीआर के लिए जीवनदायिनी बनी हुई है। लेकिन अवैध खनन, शहरीकरण और अब न्यायिक परिभाषा के बदलाव ने इसके अस्तित्व को खतरे में डाल दिया है। हर स्तर पर जानना चाहते हैं कि आख़िर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की व्याख्या केंद्र और राज्य सरकार कैसे करती है, केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव ने संबोधित करते हुए मिडिया में अरावली पर्वत श्रृंखला को बचाने संरक्षण करने का बताया है पर चिंता व्याप्त हो गई और प्रभावित पर्वतीय क्षेत्रों में विरोध प्रदर्शन ओर आंदोलन आकार ले रहा है ।

अरावली की प्राचीनता और भूगर्भीय इतिहास

अरावली पर्वत श्रृंखला दुनिया की सबसे प्राचीन फोल्ड माउंटेन रेंजों में से एक है, जिसकी उत्पत्ति प्रोटेरोज़ोइक युग में हुई थी। वैज्ञानिक अनुमानों के अनुसार, इसकी उम्र 1.5 से 1.8 अरब वर्ष तक है, जो हिमालय से भी कहीं अधिक पुरानी है। इसकी उत्पत्ति भारतीय प्लेट और यूरेशियन प्लेट के अलगाव से पहले की है, जब महाद्वीपीय क्रस्ट की टकराहट ने इसे आकार दिया। अरावली की चट्टानें मुख्य रूप से ग्रेनाइट, ग्नीस और क्वार्ट्जाइट से बनी हैं, जो प्राचीन महासागरों के तल से ऊपर उठी थीं।

इसकी भूगर्भीय यात्रा 3.3 अरब वर्ष पहले शुरू हुई, जब ग्रेनाइटिक मैग्मा का निर्माण हो रहा था। समय के साथ, अपक्षय और अपरदन ने इसकी ऊंचाई को कम किया, लेकिन इसकी मजबूती बनी रही। आज, यह श्रृंखला जैव विविधता का खजाना है, जहां दुर्लभ प्रजातियां जैसे तेंदुआ, लकड़बग्घा और सैकड़ों पक्षी निवास करते हैं। राजस्थान के अलवर से दिल्ली तक फैली यह रेंज इतिहास की गवाह है – प्राचीन किलों की रक्षा से लेकर आधुनिक पर्यावरणीय चुनौतियों तक। लेकिन अब, सुप्रीम कोर्ट की नई परिभाषा ने इस प्राचीन विरासत को खतरे में डाल दिया है, जहां केवल 100 मीटर से ऊंची संरचनाओं को ही अरावली माना जाएगा। यह परिवर्तन 90% क्षेत्र को संरक्षण से बाहर कर सकता है, जो एक बड़ी चिंता का विषय है।

पर्यावरणीय महत्व और मरुस्थलीकरण की रोकथाम में भूमिका

अरावली का पर्यावरणीय महत्व अपार है। यह उत्तर-पश्चिम भारत की जलवायु को नियंत्रित करती है, भूजल को रिचार्ज करती है और जैव विविधता को संरक्षित रखती है। सबसे महत्वपूर्ण, यह थार रेगिस्तान के पूर्व की ओर विस्तार को रोकने वाली प्राकृतिक दीवार है। बिना अरावली के, रेगिस्तानी हवाएं दिल्ली-एनसीआर तक पहुंच सकती हैं, जिससे धूल भरी आंधियां, प्रदूषण और सूखा बढ़ सकता है। यह "ग्रीन वॉल" की तरह काम करती है, जो गंगा के मैदानों को मरुस्थलीकरण से बचाती है।

पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार, अरावली वायु प्रदूषण को कम करती है, मिट्टी के कटाव को रोकती है और वर्षा को बढ़ावा देती है। हरियाणा और राजस्थान में इसके वनों ने लाखों हेक्टेयर भूमि को मरुस्थलीकरण से बचाया है ,यदि यह नष्ट हुई, तो दिल्ली का AQI और बढ़ेगा, जल संकट गहराएगा और कृषि प्रभावित होगी। हाल के अध्ययनों से पता चलता है कि 1975 से अब तक 8% क्षेत्र नष्ट हो चुका है, और यह 2059 तक 22% तक पहुंच सकता है।इसलिए, इसका संरक्षण जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में महत्वपूर्ण है।

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय: विवरण और प्रभाव

20 नवंबर 2025 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की समिति की सिफारिश पर अरावली की एक समान परिभाषा स्वीकार की। इसके अनुसार, केवल 100 मीटर से ऊंची संरचनाएं ही अरावली पहाड़ियां मानी जाएंगी, और 500 मीटर के भीतर क्लस्टर वाली रेंज। अदालत ने नई खनन लीज पर रोक लगाई, लेकिन पुरानी लीजों के लिए सस्टेनेबल माइनिंग प्लान बनाने का आदेश दिया वन क्षेत्रों में खनन निलंबित है, जब तक EIA पूरा नहीं होता।

हालांकि, इस परिभाषा की आलोचना हो रही है, क्योंकि इससे 90% क्षेत्र असुरक्षित हो सकता है।विशेषज्ञ इसे "मौत का वारंट" कहते हैं, जो खनन और निर्माण को बढ़ावा देगा। अदालत ने सस्टेनेबल प्लान पर जोर दिया, लेकिन ऊंचाई-आधारित परिभाषा ने विवाद पैदा कर दिया। यह निर्णय 2002 की परिभाषा पर आधारित है, लेकिन राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप जारी हैं।

अवैध खनन और पर्यावरणीय क्षरण

मुख्य मुद्दा अवैध खनन, जंगलों की कटाई और शहरीकरण है। राजस्थान और हरियाणा में खनन ने पहाड़ियों को नुकसान पहुंचाया, जिससे भूस्खलन और जल स्तर गिरावट हुई।2018 में खनन पर प्रतिबंध था, लेकिन नई परिभाषा इसे कमजोर कर सकती है।कई एकड़ जंगल काटे जा रहे हैं, जो पर्यावरणीय संकट को बढ़ा रहा है। मुद्दा यह है कि कम ऊंचाई वाली पहाड़ियां खनन के लिए खुल सकती हैं, जो पूरे इकोसिस्टम को प्रभावित करेगी।

नागरिकों की चिंताएं और विरोध प्रदर्शन

नागरिकों में गहरी चिंता है। #SaveAravalli अभियान सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा है, और विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। लोग रेगिस्तान विस्तार, जल संकट और आंधियों से डरते हैं। उदयपुर में दिनभर का उपवास, जयपुर में रैलियां और दिल्ली में विरोध हो रहे हैं।स्थानीय निवासी कहते हैं कि अरावली कृषि और जलवायु की रक्षा करती है।पोस्ट्स में लोग सुप्रीम कोर्ट से पुनर्विचार की मांग कर रहे हैं।एक पोस्ट में कहा गया कि यह दिल्ली के "नेचुरल शील्ड" को नष्ट करेगा।

राजनीतिक दलों की चिंताएं और प्रतिक्रियाएं

राजनीतिक दल बंटे हुए हैं। कांग्रेस ने इसे "मौत का वारंट" कहा, सोनिया गांधी और अशोक गहलोत ने केंद्र की आलोचना की। पूर्व मुख्यमंत्री गहलोत ने पुनर्विचार की अपील की, चेतावनी दी कि यह पर्यावरणीय क्षति करेगा।भाजपा नेता ओर पूर्व मंत्री राजेंद्र सिंह राठौर ने कहा कि निर्णय 2002 की परिभाषा पर आधारित है, और सरकार संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है। विपक्ष इसे खनन माफिया को बढ़ावा बताता है, जबकि सत्ता पक्ष इसे विनियमन का कदम मानता है। ऐसे में अभियान #SaveAravalli राजनीतिक फ्लैश पॉइंट बन गया है।

पर्यावरण संरक्षण की चिंताएं और समाधान

पर्यावरण संरक्षण की चिंताएं गंभीर हैं। नई परिभाषा से 90% क्षेत्र खतरे में है, जिससे मरुस्थलीकरण बढ़ेगा।विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि "ग्रीन वॉल" नष्ट हो सकता है। संरक्षण के लिए कानूनी सुरक्षा, खनन विनियमन और "ग्रीन वॉल" प्रोजेक्ट जरूरी हैं। भारत सरकार को सस्टेनेबल प्लान लागू करना चाहिए।

अरावली न केवल एक पर्वत श्रृंखला है, बल्कि भारत की पर्यावरणीय विरासत है।लेकिन संरक्षण सामूहिक जिम्मेदारी है। नागरिक, राजनीतिक दल , पर्यावरण क्षेत्र कार्यकर्ता और विशेषज्ञ मिलकर इसे बचा सकते हैं। यदि हम अब नहीं जागे, तो आने वाली पीढ़ियां रेगिस्तानी भारत का सामना करेंगी , ओर वैसे भी सीमेंट कॉन्क्रीट के जंगल उगाने में लगे हैं सक्षम लोग। जल जंगल और ज़मीन है तो ही प्राणिमात्र का अस्तित्व है ।


देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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