आओ हम सब सेतु बनें,
नद नाले सागर पार करें।
तब स्वच्छता नजर आएगी,
और गंदगी नीचे रह जाएगी ।
सभी सीमा भेद मिट जाएंगे,
सबके दिलो दिमाग मिल जाएंगे ।
समीर सम बहेगी समता समरसता,
और फिर बचेगी सिर्फ मानवता।
प्रेम की धार बनेगी सदा बहेगी,
नफरत की दीवार सदा को हटेगी।
सारे अधिकार फिर कर्म बन जाएंगे,
कर्म सभी तब अधिकार बन जाएंगे।
बस हम सेतु बनें और बने रहें,
सुंदर स्वस्थ सुगढ सुदृढ बने रहें।
- सत्येंद्र सिंह
पुणे महाराष्ट्र
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काव्य
बहुत ही सुन्दर और गूढ़ार्थ लिए लिखी कविता। समतामूलक समाज की आवश्यकता को दर्शाती अग्रगामी विचारों से युक्त कविता हेतु बधाई आदरणीय सर।
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