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यात्रा वृतांत : चिड़ीखो भ्रमण - सुरेश पटवा,भोपाल


यात्रा वृतांत : चिड़ीखो भ्रमण

हमारे निजी दर्शन के अनुसार प्रेम के तीन अवलम्बन हैं- प्रभु, पुस्तक और पर्यटन। बाक़ी तो सब भोग के विषय हैं। या तो हम उनक भोग कर रहे हैं या हम उनका भोग बने हैं। पुस्तक पढ़ते-लिखते पर्यटन की हूक उठती है तो चल देते हैं, भोपाल के आसपास। नरसिंहगढ़ के नज़दीक चिड़ीखो नामक अभयारण्य है। अरण्य याने जंगल और अभय याने भय रहित। चिड़ीखो पक्षियों और शाकाहारी जानवरों का स्वर्ग है। तीन चार मांसाहारी पशु होने से हिरणों की भरमार है। घने पेड़ों पर पक्षियाँ बेशुमार हैं। बंदरों का तो कहना क्या। मजाल है असंख्य आम और जामुन के पेड़ों पर एक भी फल बच जाये। पर्यटन के दौरान श्री कृष्ण श्रीवास्तव जैसा एक सुलझा बुद्धिमान दोस्त साथ हो तो फिर कहना ही क्या। तो चलिए, चलते हैं चिड़ीखो। 

बकलम खुद मालिक को हाज़िर नाज़िर जान बयाँ करते है, एक और खूबसूरत यात्रा की तफ़सील, बतारीख़ 16 जुलाई 2024 दिन मंगलवार 12 बारह बजे राष्ट्रीय राजमार्ग क्रमांक 12 जो कि जबलपुर से शुरू होकर भोपाल, नरसिंहगढ़, ब्यावरा, राजगढ़, खिलचीपुर, अकलेरा, झालावाड़, कोटा, बूंदी होता हुआ जयपुर तक जाता है, से चिड़ीखो पहुँचने हेतु ख़ुद के वाहन से मित्र श्रीकृष्ण श्रीवास्तव के साथ निकले। गाड़ी चालू कर अयोध्या बाइपास पकड़ गांधीनगर से गुजर नरसिंहगढ़ रोड़ पर वाहन सरपट भागने लगा। चौड़ी सड़क, ऑटोमैटिक वाहन, ख़ुशनुमा मौसम, एफ़एम पर सावनी गीतों की संगीत लहरियाँ, बूँदों की रुनझुन, चारों तरफ़ खेतों पर शबनमी लिबास में मख़मली हरियाली के मदहोश कर देने वाले नज़ारे। फ़िरदौस भाई, अमाँ खाँ यही तो स्वर्ग है। तुम कहाँ कश्मीर में भटक रहे हो। अपनी प्राकृतिक सुंदरता के कारण चिड़ीखो राजगढ़ जिले के नरसिंहगढ़ से सटी सबसे खूबसूरत जगहों में से एक है, इसलिए इसे "मालवा का कश्मीर" भी कहा जाता है। 

कुछ उनींदा सा महसूस करने लगे तो एक जगह चाय पीने रुके। आदतन नज़र घुमाई। बारिश के मौसम में नज़ारों का क्या कहिए। एक गौरांग छरहरी मालवी सुंदरी काली छतरी की डंडी को हाथों से थामे रिमझिम को झेलती गर्मागर्म भुट्टे के दानों को चमकती दंतौड़ी से चबाते और पानी की बौछार को लहँगे से उलाहना देते दिख गई। वह बीच-बीच में बदमाश मक्खियों को भी घूर लेती थे। थोड़ी दूर पर एक बछिया उसे बड़े ध्यान से निहारे जा रही है कि अब भुट्टे का बचाखुचा अंश उसके भाग्य में आने ही वाला है, पर हाय री क़िस्मत, सुंदरी का प्रेमी मोटरसाइकिल पर फरफराता आ धमका, प्रेमिका ने भुट्टे को झट प्रेमी के मुँह में रखा। उसने एक बड़ा हिस्सा दानों से ख़ाली कर दिया। सुंदरी ने उसे घूर कर देखा और तुरंत बाँकी चितवन से देख लहरिया अदा से लहँगे को समेट उचक कर गाड़ी पर सवार हो निकल गई। 

बेचारी बिछिया मायूस होकर अगले ग्राहक की राह देखने लगी। भुट्टे वाले लड़के को बछिया की मासूमियत भा गई। उसने एक छोटा भुट्टा निकाल बछिया के मुँह में क्या धरा, वह गर्दन हिलाकर छम्मा-छम्मा करने लगी। भुट्टे वाले के बिलकुल बाजू में एक बकरी का मेमना सपरिवार जुगाली में ध्यानस्थ माँ के थनों को चूस रहा है। इतने में चाय वाला छुटकु डिस्पोजल कप में आग उगलती चाय हमको पकड़ा गया। किसी तरह पहला घूँट सुर्र से खींचा तब कप पकड़ने की जुगत लगी। चाय से फ़ुरसत हो आगे बढ़े। 

आषाढ़ माह में शुरू हुई बारिश सावन मास की रिमझिम में बदल चुकी है। धरती ने सर्वत्र हरियाली की मुलायम चादर ओढ़ ली है। पंछी पानी से भरे डबरों में किलोल कर रहे हैं। पशु बड़ी तन्मयता से हरी घास चरने में मगन हैं। हम लोग भी चिड़ीखो अभयारण्य के मनमोहक ख़्यालों में चले जा रहे हैं। बातें उस जमाने की होने लगीं जब 1681 में राजगढ़ घराने के तत्कालीन शासक रावत मोहन सिंहजी के छोटे भाई पारस रामजी के दीवान परसराम ने रियासत विभाजन के बाद विंध्याचल पहाड़ियों की उपत्यका में एक नया राज्य स्थापित किया था। नई रियासत का नाम आराध्य देव भगवान श्री नरसिंह के नाम पर नरसिंहगढ़ रखा। इसके बाद उन्होंने श्री नरसिंह भगवान का मंदिर बनवाया। उन्होंने परस राम सागर के नाम से एक तालाब बनवाया। 

मध्यप्रदेश राज्य को जब 1978 में वन्य जीवन के स्वर्ग के रूप मान्यता मिली और अनेक वन्यजीव अभयारण्य के साथ भोपाल से मात्र 80 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में विंध्य पहाड़ियों के मध्य  “चिड़ीखो अभयारण्य” स्थापित हुआ। तब प्रकृति प्रेमियों को पता चला कि सीहोर जिले के आष्टा तहसील के पास सिद्दीगंज गाव के पास से पार्वती नदी निकल रामपुर नामक बाँध से आगे बढ़कर चिड़ीखो  नामक जंगल में पहुँचती है। वहीं दूसरी तरफ़ से कालीसिंध नदी विदिशा जिले की लटेरी तहसील से 10 किलोमीटर दूर के ग्राम नैनवास कला स्थित ताल से निकल पार्वती नदी से मिलकर काली सिंध नाम से चंबल नदी में मिलने आगे बढ़ जाती है। इन्ही नदियों के संयुक्त आग़ोश में चिड़ीखो अभयारण्य आबाद है। 

बातें करते-करते पता ही न चला हम श्यामपुर दोराहा पहुँच गये। यह दोराहा क्या चीज़ है। मुग़ल काल में यहाँ से दो राहें कटती थी। एक मालवा की राजधानी मांडू और दूसरी सीहोर-नसरुल्लागंज-हरदा-बुरहानपुर होकर दक्षिण की तरफ़ ख़ानदेश पहुँचती थी। इसीलिए इसके किनारे बसे श्यामपुर का नाम श्यामपुर दोराहा पड़ गया। 18वीं शताब्दी की शुरुआत में भोपाल के नवाब दोस्त मोहम्मद खान ने दोराहा पर नियंत्रण हासिल कर लिया। भोपाल की लड़ाई (1737) में बाज़ीराव ने मुग़लों और भोपाल के नवाब की संयुक्त सेना को यहीं हराया था। उसके बाद, 7 जनवरी 1738 को इसी श्यामपुर दोराहा में मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव और मुगल साम्राज्य के राजा जयसिंह द्वितीय के बीच एक शांति संधि पर हस्ताक्षर किए गए थे। यहाँ थोड़ी देर रुककर  फिर चिड़ीखो की दिशा में चल दिये। 

चिड़ियों के रहने की जगह पहाड़ों और पेड़ों की खोह होती है। जहाँ पक्षी अपने अंडे शे कर चूज़ों को मुँह से दान चुगा पाल पोसकर परवाज़ बनाते हैं। पहले यह जंगल नरसिंहगढ़ रियासत का शिकारगाह था। इसका नाम चिड़ीखो इस बात का संकेत है कि यह एक पक्षियों को निहारने का स्वर्ग है। "चिड़ी" का अर्थ है पक्षी और "खो" का अर्थ है घोंसला बनाने का स्थान, इस प्रकार यह हुआ पक्षियों का घर है।

कुरावर गाँव के पहले पार्वती नदी का पुल पार किया। तभी लगा कि चिड़ीखो के लिए दाहिनी तरफ़ रास्ता कटेगा। बीस मिनट चलने के बाद अभयारण्य का गेट आ गया। कुरावर गाँव से थोड़ी दूर चलकर दाहिनी तरफ़ चिड़ीखो का बोर्ड दिखा। मुड़कर वन विभाग की चौकी पर पहुँचे। कर्मचारियों ने कहा कार की प्रवेश शुल्क 300/- है। हमने उनके विभाग के अधिकारी का संदर्भ देकर उनसे बात भी करवा दी। उन्होंने बिना किसी शुल्क के हुमको गेस्ट हाऊस तक जाने का रास्ता खोल दिया। तीन किलोमीटर चलकर एक तालाब के किनारे बने गेस्ट हाऊस पहुँच केयरटेकर कुशवाहा की से अधिकारी मित्र मी बात कराई तो उन्होंने दो नंबर कमरा खुलवा कर ठहरा दिया। सेवक बढ़िया चाय ले आशा। चिड़ीखो में हमारे ठहरने की जुगाड़ व्यवस्था जंगल महकमे की कृपा से हो गई थी। 

जब हम जंगल विभाग के विश्राम गृह पहुँचे तो बारिश रुक चुकी थी और सूर्य की तीखी किरणें सागौन के पत्तों पर पड़ पानी की बूँदें शबनम के बिखरे मोतियों की लड़ी लग रही थीं। सेवक ने बताया कि कल आसमान से बिजली गिरने से गेस्ट हाऊस के सभी पंखे ख़राब हो गए हैं।  माहौल में सच्ची ख़ासी गर्मी और उमस से बुरा हाल था। सेवक ने दूसरे कमरे से एक स्टैंड फैन lलाकर लगाया तब राहत की साँस ली। चाय पीकर उसी दिन शाम और अगले दिन सुबह का कार्यक्रम तय किया। गेस्ट हाऊस के सामने रियासत कालीन मानव निर्मित चिड़िया के आकार का तालाब है। उसके किनारे एक किलोमीटर का रास्ता है उस पर घूमने निकले लेकिन वातावरण में बहुत उमस होने के कारण वापस लौट आये। कुशवाहा जी से बातचीत कर आसपास घूमने योग्य स्थानों की चर्चा की। उन्हें और उनके एक चौकीदार को नज़दीक कोटरा गाँव जाना था। वहाँ पार्वती नदी पर बाँध और एक बड़ा पुल बन रहा है। वहाँ एक गुप्तकालीन श्याम मंदिर है। एक जैन मंदिर भी निर्माणाधीन है। उनको गाड़ी में साथ बैठाकर पार्वती नदी किनारे तक तो पहुँच गये। लेकिन नदी में पानी अधिक होने से गाड़ी पार होना असंभव था। लिहाज़ा दूर से ही दर्शन लाभ लिए। 

हमने कुशवाहा की से पूछा – एक कोटरा भोपाल में भी है। 

उन्होंने बताया – वह कोटरा सुल्तानाबाद है जिसे भोपाल की सुल्तान जहाँ बेगम ने आबाद किया था। यह कोटरा बिहार है। 

इस अभयारण्य के केंद्र में चिड़ी आकार की "चिड़ीखो झील" है जो पर्यटकों के बीच आकर्षण का केंद्र है। सत्रहवीं सदी में इस अभयारण्य का निर्माण राज्य के तत्कालीन शासकों द्वारा किया गया था और प्राचीन समय में इस अभयारण्य का उपयोग शिकार के लिए किया जाता था। इस अभयारण्य में विभिन्न स्थानों से प्रवासी पक्षी यहाँ पहुँचते हैं। यहां स्थित झील का विशेष स्वरूप है जिसके कारण स्थानीय लोगों ने इस झील का नाम “चिडिखो झील” रख दिया है। यहां इस अभयारण्य में हमें स्थानीय पक्षियों और प्रवासी पक्षियों की झलक देखने को मिलती है। पेड़ों पर असंख्य पक्षियों का डेरा है। 

इस अभयारण्य में मध्यप्रदेश राज्य पक्षी दूध राज मुख्य रूप से देखा जाता है। राष्ट्रीय पक्षी मोर मुख्य रूप से इसी अभयारण्य और आसपास के क्षेत्रों में बहुतायत पाए जाते हैं। हिरणों की मौजूदगी इतनी है कि जिधर निगाह डालो वहाँ हिरण ही हिरण। यहां की जलवायु राष्ट्रीय पक्षी मोर के लिए उपयुक्त है। इसीलिए अभयारण्य को विकसित होने का मौका मिल रहा है क्योंकि इस अभयारण्य का मयूर पार्क क्षेत्र जंगली जानवरों के लिए पर्याप्त है। गुलबाग, चीतल बड़ी संख्या में तथा सांभर, नीलगाय मुख्य रूप से पाए जाते हैं। हम उन्हें इस अभयारण्य में स्वतंत्र रूप से घूमते हुए देख सकते हैं। "चिड़िखो झील" के पास जामुन खो, अंधियार खो में भी जंगली जानवर देखे जा सकते हैं। यहाँ बंगाल टाइगर नहीं है। वन्य प्राणियों की सुरक्षा एवं संरक्षण के लिए कार्य किया जाता है।

शाम को तालाब पर हल्की लहरों की हरकत होने लगी है जो दिन में नहीं थी। तालाब किनारे चिड़ियों की चहचहाहट और फुदकने का आनंद लेते घूमते रहे। जैसे जैसे शाम गहराती जाती है, वैसे वैसे पक्षियों की आवाज़ें बहुतायत में तेज होती जा रही हैं। दूर से बंदरों की आवाज़ें आ रही हैं। अब रात घिरने लगी है। पक्षियों की आवाज़ें कम होते कमतर हुईं, अब लुप्त होने लगी हैं। अंधेरा होने से जुगनू की चमक दिखाई दी। जुगनुओं से आँख मिचौली शुरू हुई जो एक घंटा चली। 

अब रात ढलने लगी है। आसमान में चाँद आधा है, बदलियों के कारण रोशनी भी कम है। सोचा था तालाब की सतह पर चाँदनी का लुत्फ़ उठायेंगे, वह नहीं हुआ। बग़ीचे में कुर्सी-टेबल लगाकर बैठ गये। “मुस्लिम पॉलिटिक्स इन इंडिया” विषय पर बातें होने लगीं। श्रीकृष्ण श्रीवास्तव इस विषय पर तीन व्याख्यान की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि भारत में मुस्लिम पॉलिटिक्स की शुरुआत शेख अहमद सरहिंदी से होती है। अकबर की समन्वयवादी नीति के विरुद्ध हिंदू मुस्लिम भेद का बीज इसी मुस्लिम विद्वान ने सत्ता के गलियारों में रोपित किया था। 

- सुरेश पटवा,भोपाल
देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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