लघुकथा :
दिवा स्वप्न
मुनिया ने जबसे होश सम्भाला उसके पिता ने उसे भी कूड़ा बीनने पर लगा दिया। वह यह काम तो करती लेकिन उसका मन उसमें नहीं लगता..! वह जब विद्यालय की पोशाक पहने हुए बच्चों को विद्यालय जाते हुए देखती तो उसका मन होता कि वह भी इन बच्चों की तरह विद्यालय जाए।
आज उसने फैसला कर लिया कि वह भी विद्यालय जाएगी और शाम को घर आते ही उसने अपने पिता से कहा,-"बापू! कूड़ा बीनने में मेरा मन नहीं लगता है। मैं भी तमाम बच्चों की तरह विद्यालय जाना चाहती हूँ।"
"नाली के कीड़े रेशम पर सोने का सपना नहीं देखते...! अगर उन्हें रेशम पर लिटा दिया जाए तो वे मर जाते हैं," उसके पिता ने कहा।
"मैं नाली का कीड़ा नहीं हूँ.. मैं भी उन बच्चों की तरह ही बच्चा हूँ.. मैं विद्यालय जाऊँगी ही जाऊँगी!” मुनिया ने कहा!
"विद्यालय जाएगी…, विद्यालय जाएगी तो तेरा पेट कैसे भरेगा?" नशे में डगमगाता पिता ने कहा।
"जैसे वे बच्चे भरते हैं...।" मुनिया ने पूछा।
"तू समझती क्यों नहीं..? वे लोग धनी माँ-बाप के संतान हैं...।विद्यालय में ग़रीब बच्चों के लिए ज़ोंबी पाये जाते हैं…!” पिता बिटिया को भटकाने का प्रयास करता है।
"बाहर सड़क पार वाले भैया.. तो मुझसे कह रहे थे.. कि पढ़ने के लिए.. कोई फीस नहीं लगती, किताबें और खाना भी मुफ्त में मिल जाता है...," मुनिया ने कहा!
"फिर तू उ भैया से कह वो तुझे भरती करा दें...! लेकिन बिटिया तू ज़ोंबी से अपनी रक्षा तू कैसे कर पाएगी? घर कैसे चलेगा..?" पिता पूछता है।
"बापू..! मैं पढ़ूँगी भी स्कूल से लौटकर कचरा भी बीन लिया करूँगी, तुम चिन्ता न करो..! इंसानों के संग रहकर ज़ोंबी भी इंसान बनते हैं…!” मुनिया विद्यालय जाने के लिए दृढ़ थी।
"ठीक है बिटिया…,” पिता का दिल भर आया, वह भी चाहता था कि उसकी बिटिया पढ़े…! खुशी से पिता की आँखें गीली हो आयीं और उसने मुनिया को सीने से चिपका लिया।□
- विभा रानी श्रीवास्तव, ह्यूस्टन/अमेरिका
बहुत-बहुत धन्यवाद आपका
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