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किताबों की दुनिया : इतिहास, कला, साहित्य की महत्वपूर्ण जानकारियों का दस्तावेज है - 'चलते तो अच्छा था' -लतिका जाधव, पुणे


किताबों की दुनिया : द्वारा – लतिका जाधव, पुणे (महाराष्ट्र)

इतिहास, कला, साहित्य की महत्वपूर्ण जानकारियों का दस्तावेज है -  'चलते तो अच्छा था'

 (ईरान – आज़रबाइजान यात्रा – वृत्तांत)

ले. असग़र वजाहत           

         ले. असग़र वजाहत जी धर्म, संस्कृति,कला और इतिहास के ज्ञानी है। आपके द्वारा लिखित ईरान-आज़रबाइजान यात्रा वृत्तांत पढ़ना एक अनोखा सफ़र रहा। इस वृत्तांत का प्रथम संस्करण 2008 में प्रकाशित हुआ था। दूसरा संस्करण 2019 में जो छपा वहीं पढ़कर यहां अपने विचार रखें है।

            ईरान जो आज है उससे पहले वहां और साम्राज्य भी थे। अनायास स्पष्ट होता है कि देशों की सरहदें कैसे बदलती गई है। देशों के नाम भी कैसे बदलते गए हैं। इन दोनों देशों से जुड़े ऐसे काफी संदर्भ इस किताब में पढ़ने को मिलते है।

      ईरान में ‘तख़्ते जमशैद’ जाने पर वहां का  ईसा पूर्व सात सौ साल पुराना जो आर्य साम्राज्य था। आप उसके बारे में बारिकियों से लिखते हैं, इतिहास में इसका नाम ‘हख़ामनश’ अंग्रेजी में इसे ‘अकामीडियन’ साम्राज्य कहा जाता है। उस समय का शासक दारुस प्रथम (549-485 ई.पू.) जिसने प्रथम मानवाधिकार दस्तावेज़ जारी किया था। जो आज भी महत्वपूर्ण माना जाता है। 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने इस दस्तावेज़ का अनुवाद विश्व की सभी भाषाओं में किया और वह बांटा गया था। यह दस्तावेज़ उस समय की कला  मिट्टी के बेलन जैसे पात्र पर खुदवाया और उसे पकाया गया था ताकि वह सुरक्षित रहे। जिसपर उस शासक द्वारा लिखा है, “..मैं अपने साम्राज्य के सभी धर्मों, परंपराओं और आचार- व्यवहारों का आदर करूंगा.”(पृ.8)  इसमें आगे जनता का स्वातंत्र्य, अधिकारों का रक्षण, गुलामी प्रथा का निर्मूलन का भी आश्वासन दिया गया है। 

                 ईरान पूर्व साम्राज्य का इतिहास और वर्तमान स्थितियों से इस यात्रा वृत्तांत की शुरुआत होती है। शताब्दियों तक इस दारुस महान की राजधानी ‘तख़्ते जमशैद’ सिकंदर से पराजित होने के बाद मिट्टी,धूल और उपेक्षा के पहाड़ों के नीचे दबी पड़ी थी। 1931-34 में अमेरिकी विश्वविद्यालयों के पुरातत्व विभाग ने खुदाई कर इस पुरातन साम्राज्य के अवशेषों को सामने लाया। जो आज विश्व के लिए आकर्षण का केंद्र बना है। वहां से कुछ दूरी पर ‘कोहे रहमत’ जहाँ गुफाओं में मूर्तियां हैं। वहीं ‘नक्शे रुस्तम’ है। रुस्तम जो कि योद्धा, प्रेमी, पिता और एक त्रासदी का नायक ही था। ऐसा कहा जाता है कि वह इस जगह नाचा था और जमीन समतल हो गई थी। इस जगह पर पूर्व सम्राटों के जीवन की घटनाओं को पत्थरों पर अंकित किया गया है। हख़ामनश साम्राज्य का सिंकदर ने युद्ध में अंत कर दिया था। तो इस बिखरें साम्राज्य से जुड़ता  मिर्ज़ा ग़ालिब का शेर याद किया गया हैं। 

“जामे – जम से तो मेरा जामे सिफ़ाल अच्छा है

और ले आएंगे बाज़ार से गर टूट गया (पृ.12)

तो इस सफ़रनामे की शुरुआत ही ‘मिट्टी का प्याला’ शीर्षक से होती है।साथ में यह अहसास भी होता है,  मनुष्य जीवन नश्वरता से जुड़ा है। 

       शीराज़ शहर में  कवि हाफिज़ शीराज़ी (चौदहवीं सदी) का मकबरा है। कब्र पर जादुई प्रभाव करती उनके शेर की फारसी मे लिखी पंक्तियां है। “ मैं मरने के बाद भी यहीं रहूंगा, फूलों और हवाओं में खुशबू जैसा बहूंगा ताकि प्रेमियों के दिल गरमाते रहें” (पृ.15) वहाँ रिसर्च इंस्टीट्यूट में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर का चित्र है, जिसमें वह इस मकबरे के सामने बैठे दिखाई देते है। एक जमाने में यह विश्व का सबसे सुंदर शहर था। लेकिन अब आपको वैसा महसूस नहीं हुआ। आप लिखते हैं, “इतिहास की खोज़ की जाए तो अवशेष ही मिलते हैं।(पृ.16) यात्रा के दरमियान कुछ अपेक्षा भंग करते अनुभव भी मिलते है। जिसका ज़िक्र चिकित्सक यात्री के वृत्तांत की विशेषता भी कहलाती है।

ईरान से आपका एक आत्मीय धागा जुड़ा है।आपके दादाजी हमेशा याद दिलाते थे।हुमायूँ की फौज में आपके पुरखे हिंदुस्तान आये थे। इसलिए ईरान का त्यौहार ‘नौरोज़’ आपके घर में मनाया जाता है। बचपन से घर में ईरान के ‘मियां ख़ाफ़’ नाम के गांव का जिक्र होता था। फिर तोतों की हवा में लहराती उड़ान। यह काव्यात्मक कल्पना ईरान की चाह ही हो सकती है। जो काव्यात्मक भाव निर्माण करती है।

       ईरान की राजधानी तेहरान में घूमने से पहले एक सलाह का आपने ज़िक्र किया है, “किसी देश को समझना हो तो उसकी सड़कों पर जाओ। किताबों में गए तो देश को न समझ पाओगे।(पृ.22) सचमुच आपने इस देश का सफ़र ऐसा ही किया है। ईरान में इस्लामी गणतंत्र हैं। इस देश में इसका प्रभाव देखते हुए लिखते हैं, “तेहरान की सड़कों पर अगर इस्लाम दिखाई देता है तो लड़कियों/औरतों के हिजाब में या दीवारों पर लगे ऊंचे धार्मिक पोस्टरों में।(पृ.25) इतना ही नहीं यदि मंच पर कोई ईरानी लड़की अभिनय भी कर रही है तो उसका सिर ढका हुआ रहना चाहिए। फिर वह किरदार किसी अमेरिकी लड़की का हो या आदिवासी।आपके विचारों की स्पष्टता इस दस्तावेज़ की विशेषता है।

               ईरान में आकृष्ट करनेवाली जो चीजें हैं उनमें फारसी भाषा की कैलीग्राफी मतलब लेखन कला बहुत ही विकसित है। ईरान में कला की परंपरा काफी पुरानी है जिस कारण किताबों के आवरण,पोस्टर्स, विज्ञापन काफी कलात्मक होते हैं।

        ईरान और भारत के संबंधों में आज वह संबंध नहीं रहे जो पहले थे।  ईरान के बुद्धिजीवियों से बातचीत में यह बात उभर कर सामने आती है। ‘पंचतंत्र’ का बारहवीं सदी में संस्कृत से फारसी में अनुवाद हुआ था। फारसी से ‘पंचतंत्र’ यूरोप पहुंचा। उत्तर भारत के प्रमुख भारतीय ग्रंथों के फारसी में अनुवाद किये जाते थे। ईरान के आम लोगों में आपका भारतीय होने का अनुभव काफी सुखद रहा। आप भारतीय है पता चलता तो कुछ लोग शरबत का बिल,टैक्सी का किराया जो ‘आप हमारे मेहमान हो’ कहकर चुकाने नहीं देते थे।एक कस्बे में ईरान का नक्शा खरीदने के बाद जब दुकान मालिक को आप भारतीय है पता चला तो उसने पैसे लौटा दिये।

                           सबसे बड़ी बात यात्रा के दौरान आपने इन देशों के बस, टैक्सी जैसे वाहनों का उपयोग किया। जो वहां के आम लोगों के यात्रा के साधन है। ठहरने के लिए साधारण मेहमान पिज़ीर ( मुसाफ़िर ख़ाना) में रहते थे। इस दौरान अच्छे- बुरे सभी अनुभवों को स्वीकारा तो कभी डटकर मुकाबला किया है।आपकी कहानियों का फारसी अनुवाद संग्रह भी परिचय के लिए ईरानियों को देना उपयुक्त रहा। थोड़ी बहुत फारसी जानने से यह यात्रा मजेदार रही। इन देशों की अंतर्गत स्थिति  तक जाने के लिए मानों यह पहल ही थी।यह बीस साल पूर्व की गई यात्राओं का वृत्तांत है। आज यात्रा कंपनियों का दिया गया पैकेज कितना सीमित होता है इस बात का यहां अहसास होता है। 

         भारतीयों को ईरान दोस्ताना नज़रों से कबूल करता हैं, पढ़कर बेहद खुशी होती हैं। ईरान और आज़रबाइजान की सरहदें आस्त्रा कस्बे में मिलती है। जहाँ से आपका अगला सफ़र शुरू हो जाता है। ईरान से बिल्कुल अलग आज़रबाइजान की दुनिया है।इस देश से जुड़ा प्राचीन किस्से कहानियों का सिलसिला भी अजीब सा है।यह देश कभी ‘कोहे क़ाफ़’  नाम से जाना जाता था। यहाँ की स्त्रियों को परियाँ कहा जाता है। वैसे आज भी इन स्त्रियों की सुंदरता  का वर्णन जो यहाँ किया है, सर्वोत्तम श्रेणी का ही है।आज़रबाइजान फारसी शब्द ‘आजर’ मतलब आग से बना है।यहां प्राचीन अग्नि पूजकों के मंदिर थे। 

सोवियत यूनियन के प्रभाव से इस्लामी जगत का आधुनिक रूप आज़रबाइजान देश है। ‘बाकू’ जो राजधानी है। वहाँ घूमते हुए इसका अनुभव भी होता है। लेखक के  भारतीय मित्र ललित कुमार  (जो बाकू मे व्यापार करते हैं) उनकी कार्यालयीन सहायक ज़ाले नामक महिला आपको इस शहर का दर्शन करा रही थी। वहां  एक चौराहे पर औरत की कलात्मक प्रतिमा थी। जो अपनी चादर फेंक रही है।नारी मुक्ति का प्रतीक इस प्रतिमा को माना जाता है।(पृ.71)

         शीखान शाह के किले के सामने विशाल पार्क में आज़रबाइजान के राष्ट्रकवि निज़ामी की प्रतिमा थी।इतना ही नहीं इस कवि के सम्मान में आज़रबाइजान की करंसी के पांचसौ मानत (करंसी का नाम मानत) के नोट पर उनका चित्र छपा था। कवियों का इन देशों में बहुत सम्मान किया जाता है। उनके स्मृति स्थलों के पास सुंदर बाग होते हैं। उनकी लिखी कविताओं को पत्थरों पर खुदवाकर वहां सजाया जाता हैं। 

       इस किताब से पाठकों को इन देशों का इतिहास, कला, साहित्य की काफी महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध हो जाती है। कुछ तो अचरज भरी भी लगती है। जैसे कि आप लिखते हैं, आज़रबाइजान एक खानदेश था। “केंद्रीय सत्ता के कमजोर पड़ते ही प्रभावशाली क्षेत्रीय नेताओं ने अपने छोटे छोटे स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिए थे जिन्हें अंग्रेजी में खा़नेट कहा जाता था।(पृ.76) भारत में आज भी महाराष्ट्र का एक हिस्सा जो मध्यप्रदेश से जुड़ा है, उसको खानदेश नाम से पहचाना जाता है। तो  यह  नाम मुघल शासन का ही चलन लगता है। 

‘बाकू’ आज़रबाइजान की राजधानी जिसके आसपास तेल के खेत है। इसी कारण यहाँ की आर्थिक स्थिति मे उछाल आया है। यहां एक अग्नि मंदिर है।जिसको ‘आतिशगाह’ कहा जाता है।ललित जी ने जो जानकारी दी थी उनके अनुसार यह मंदिर भारतीय व्यापारियों ने ही बनवाया था। पुराने ‘सिल्क रोड’ से यहाँ आशियाई देशों के व्यापारियों का आनाजाना होता था। लेकिन अब यह बंद हो गया है, फिर भी आज़रबाइजान सरकार ने इस ‘अग्नि मंदिर’ को संरक्षित किया है। “इस मंदिर में पत्थर के चौकोर हौज़ से, पत्थर के टुकड़ों के बीच से आग की ज्वाला निकल रही थी।इस आग का रंग सामान्य आग जैसा लाल नहीं था, न इसमें धुआं था न इसकी लपटें रंग बदल रही थी।“(पृ.84) यह काफी प्राचीन मंदिर है।जमीन से निकलने वाले गैस के कारण यह आग जल रही रही थी। यह कब से आग जल रही है इस बात का कोई पता नहीं है। किताब के हर  पन्ने पर संस्कृति, व्यापार, राजनीति से जुड़ी हक़ीक़तें यहाँ मिलती  जाती है।। “तबरेज़ शहर तुर्की और ईरानी मिश्रित संस्कृति का प्रतीक है..अपनी स्थापत्य कला और ऊंचे सौंदर्य शास्त्रीय मानदंडों के अनुसार भी तबरेज़ का अपना अलग चरित्र है।“(पृ.94)  तबरेज़ की प्रसिद्ध नीली मस्जिद(1465) के आजूबाजू खूबसूरत पार्क में बारहवीं शताब्दी के अजरी कवि शिरवानी ख़ाक़ानी की बड़ी प्रतिमा है। हर शहर की अपनी ही विशेषता है। 

धार्मिक शहर क़ुम जो शिआ मुसलमानों के लिए विशेष महत्व रखता है। यहाँ आठवें इमाम हजरत रज़ा की बहन हजरत मासूमा का मकबरा है।इस शहर का एक धार्मिक दबदबा कायम है। ईरान की धार्मिक राजनीति यहां से तय होती है।

           इस्फ़हान शहर को सोलहवीं शताब्दी में आधी दुनिया के बराबर माना जाता था लेखक इसका सही उच्चारण स्पष्ट करते हैं। निस्फ (आधा) और जहान (संसार) इस्फ़हान ही पहले ईरान की राजधानी था। कला और संस्कृति, संगीत, फिल्में, साहित्य के क्षेत्रों में आज भी इस्फ़हान आगे है।ढाई हजार साल पुराने इस्फ़हान का अपना एक विस्तृत इतिहास है।शेरशाह सूरी से हारने के बाद हुमायूँ यहाँ सम्राट शाह अब्बास सफ़वी के पास ही आया था। यहां सबसे बड़ी इमाम मस्जिद की मनमोहक कैलीग्राफी प्रभावित करती है। यहाँ एक चालीस खम्भों वाली इमारत भी आकर्षक है। इस इमारत की दीवारों पर शाह अब्बासी सफ़वी युग की महत्वपूर्ण घटनाओं के चित्रों को उकेरा गया है।

          इस्फ़हान शहर की सड़कों पर पोस्टर बेचनेवाले की दुकान में हिंदी फिल्मों के शाहरुख खान से ऐश्वर्या राय तक के पोस्टर्स बिक रहे थे। श्रीकृष्ण भगवान के बाललीला से संबंधित चित्र भी थे। इस्फ़हान की सड़कों पर आपको ’समीन’ फिल्मी पत्रिका मिली जो ‘बालिवुड’ सिनेमा को समर्पित पत्रिका है।इस पत्रिका में हिन्दी- फारसी फिल्मी शब्दावली का छोटा शब्दकोश छापा गया था। हिंदी फिल्मों के गीतों का मूल पाठ और फारसी अनुवाद छापा गया था। (पृ.113) इन हिंदी फिल्मों के जरिए ही आज भारत का ईरान से नाता जुड़ा है।लेकिन दोनों देशों के बीच भाषा वृद्धि और विकास के लिए कोई योजना दिखाई नहीं देती है।इस बात को लेकर आप चिंता जताते हैं।

            यज़्द शहर में आज भी अग्नि पूजक रहते हैं। यह शहर प्रमुख व्यापार मार्ग पर है। हथकरघों और रेशम के व्यवसाय के लिए यह शहर प्रसिद्ध है। ईरान से हिंदुस्तान आने का रास्ता भी इसी शहर से गुज़रता था। इस शहर की स्थापत्य कला में ‘हवा मीनार’ का विशेष रूप से महत्व दिखाई देता है। जो यहाँ  घरों के उपर बनाए जाते हैं। इनकी करीबन दस बारह फूट की उंचाई होती है तो चौडाई चार बाई चार के आसपास होती है। इनमें हवा जाने के लिए रास्ता छोड़ा जाता है।तपते गर्म मौसम में गर्म हवा इन मीनारों के अंदर जाती है और दीवारों के बीच घूमकर ठंडी हो जाती है। यह प्राचीन ‘एयरकंडीशनिंग’ का सिस्टम यज़्द शहर मे आज भी काम करता है। बारहवीं शताब्दी में बनी यहां की जामा मस्जिद ईरान के श्रेष्ठ इमारतों में गिनी जाती है।वैसे यज़्द जोराशट्रियन धर्म का भी केंद्र है।ईरान का सबसे बड़ा त्यौहार नवरोज़ या नवरुज इस्लामी नहीं बल्कि जोराशट्रियन है।यज़्द का ‘आतिशगाह’ मतलब ‘अग्नि मंदिर’ जिसका दर्शन करने आज भी दुनिया भर के पारसी लोग यहां आते रहते हैं।

          मशहद शहर में आठवें इमाम हजरत रज़ा का मकबरा है।जिनको खलीफ़ा मामून ने 203 हिजरी में जहर देकर मारा था। उनको यहां दफ़न किया गया। इस शहर का नाम जो पहले सनाबाद था बाद में मशहद (शहादत की जगह) हो गया। यहां उनका एक भव्य मकबरा है। मशहद बहुत संपन्न शहर लगा, लेखक लिखते हैं, “ मशहद में मोबाईल की जितनी दुकानें हैं, उतनी शायद मैंने कहीं नहीं देखी” (पृ.119) इस शहर के पास तूस नाम का पुराना गांव है।यहाँ फारसी के विश्व प्रसिद्ध कवि फिरदौसी (940-1020ई.) का मकबरा है। फिरदौसी का लिखा ‘शाहनामा’ जिसमें ईरान का वैभव, अस्मिता व संस्कृति की विरासत लिखी गई है।फिरदौसी ने ही रुस्तम और सोहराब जैसे पात्रों की निर्मिती की है। इस  स्थान पर  उनकी रचनाओं को संगमरमर में उकेर कर सजाया गया है।उनके शेर पत्थरों पर लिखकर लगाए गए हैं। मकबरे के चारों ओर सुंदर बाग हैं। (पृ.122)

          मशहद में निर्दयी, अत्याचारी, लुटेरे नादिरशाह (1688-1747) का मकबरा है। जो हिंदुस्तान का शहंशाह बना उसने अपने नाम का सिक्का भी शुरू किया था।फिर दिल्ली को पूरी तरह से उजाड़ कर लौट गया।लेकिन हिंदुस्तान से लूटा गया किमती ऐवज और ‘कोहीनूर’ हिरा उसको रास नहीं आया।ईरान में उसके ही अंगरक्षकों के प्रमुख ने उसकी हत्या कर दी थी। इतिहास के पन्नों पर अत्याचारी ऐसे भी याद किये जाते है।

        सबसे भावुक करनेवाली घटना आपके लिए ख़ाफ़ में जाना थी। आपके पूर्वज सोलहवीं शताब्दी में हुमायूँ की सेना में ईरान से हिंदुस्तान आये थे। ख़ाफ़ ही वह जगह थी जो आपके पूर्वजों का गांव था। काफी जद्दोजहद कर मित्रों की मदद से आप ख़ाफ़ पहुंचते हैं।जो वर्तमान में भी एक कस्बे जैसा ही था। ख़ाफ़ के लोगों को  अपने पुरखों का घर तलाश करने आये इस इंसान को देखकर कुछ अजीब सा लगता है। जैसे आप कोई ख़जाना ढूंढने ही आये हैं। आप एक पुराने मुहल्ले के कच्चे टूटे मकान का मिट्टी का टुकड़ा उठा लेते है। जो आपके लिए खज़ाना ही था। अब ऐसा देखकर वहां के लोगों को हंसी आना स्वाभाविक ही था। (पृ.136)  

           वापसी का दौर तेहरान से था। इससे पहले आपने तेहरान शहर के किसी स्थल का फोटो नहीं खींचा था। तेहरान के अमेरिकी दूतावास के बाहर जो अमेरिका विरोधी नारे लिखे थे उनकी आपने फोटो खींची। आप और किसी अच्छी इमारत की फोटोज लेना चाहते थे।हाथों में कैमेरा था,  लेकिन अचानक ईरानी पुलिस कमांडोज ने घेर लिया। एक रोमांचक सफ़र में अचानक गिरफ़्तारी से सामना हो गया। फोटो लेना महंगा पड़ गया।काफी पूछताछ और सामान को परखा गया। आपके भारतीय मित्र राहुल से फोन पर बात हुई। राहुल ने भारतीय दूतावास से संपर्क किया। भारतीय दूतावास का स्पष्टीकरण, फिर आपको विश्वास कर छोड़ दिया गया। तेहरान में भारतीय मित्र राहुल था। परदेस में आखिर अपने देश का सहारा ही आत्मीयतापूर्ण रहा।

            ईरान आज़रबाइजान का यह यात्रा वृत्तांत पढ़ते हुए ‘चलते तो अच्छा था’ शीर्षक सही मायने में सार्थक लगा।

असग़र वजाहत साहब की रोचक कथन शैली ही ऐसी है कि पढ़ते हुए लगता है, हम खुद उनके साथ सफ़र करते हुए मजे भी ले रहे हैं और दरमियान होती जद्दोजहद भी सह रहे हैं। भारत का ही नहीं मध्य एशिया का एक दूसरे के साथ जो सांस्कृतिक विरासत का नाता है उसका लेखाजोखा इस सफ़रनामे के हर पन्ने पर मिलता है।आपकी स्पष्टता,तर्क और विवेचन इस वृत्तांत की विशेषता है। पाठक सांस्कृतिक विरासत से जुड़े इस यात्रा वृत्तांत  को पढ़कर जरूर इन देशों की यात्रा करने का निश्चय कर सकते हैं। बार बार पढ़ने को प्रवृत्त करनेवाला यह रोचक शैली में लिखा एक अमूल्य दस्तावेज़ है।इतिहास और वर्तमान से जुड़ा यात्रा वृत्तांत लिखने के लिए असग़र वजाहत जी की कलम को साधुवाद।

चलते तो अच्छा था ( यात्रा वृत्तांत)

ले. असग़र वजाहत

दू.संस्करण-2019,मूल्य- 150, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली.32

पृ.सं.144 

द्वारा – लतिका जाधव, पुणे ( महाराष्ट्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

1 Comments

  1. संपादक, श्री. देवेंद्र भाई सोनी जी, मेरे आलेख को प्रकाशित करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद!🙏

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