लघुकथा :
झोली भर दुआएं
"मेमसाहब, आप आ गईं! मैं तो रोज़ देखने आती थी। आज तो मुझे थोड़े पैसे भी चाहिए थे। अच्छा हुआ, आप मिल गईं।"
"हाँ हाँ, पैसे ही नजर आते हैं तुम्हें! बताओ, आई कब थी, काम कब किया जो पैसे मांग रही हो?" मेमसाहब ने तीखे लहजे में जवाब दिया।
"आप ही नहीं थीं मैं तो रोज़ आती थी। पड़ोसियों से पूछ लो।"
"पड़ोसियों से क्या पूछूं? मुझे जाना था तो छुट्टी लेकर बैठी रही महारानी की तरह घर में!"
"मेमसाहब, मेरी बेटी बहुत बीमार थी। इसलिए—"
"इस महीने के तो पैसे वैसे भूल ही जाओ। अगले महीने काम पर आई तो देखूंगी।"
"आटा-चावल सब खत्म हो गया है। इसलिए थोड़े पैसे—"
"कह दिया ना, जाओ अब!" मेमसाहब ने डाँटकर दरवाज़ा बंद कर लिया।
माया की आँखें भीग गईं। दो आंसू टपके और झोली में समा गए। माया के जाते ही मेम साहब के बेटे मोंटी ने कहा,
"मम्मी, तीन सो रुपए देना, हम दोनों भाई-बहन आइसक्रीम खाने जा रहे हैं।"
"घर में ही ऑर्डर कर लो।"
"नहीं मम्मी, आइसक्रीम पार्लर पर ही खानी है।"
"ओके!" मम्मी ने कहा और बच्चे को पैसे थमा दिए।
पार्लर जाने के बहाने दोनों बच्चे गली में माया को ढूंढने लगे। थोड़ी दूर जाकर सामने वाले घर से माया निकलती दिखाई दी।
मोंटी ने उसके पास जाकर चुपचाप पांच सो रुपए उसके हाथ में रख दिए, "आंटी, आटा-चावल ले लेना। अभी इतने ही है बाकी पैसे भी बाद में मैं आपको दूंगा , पर मम्मी को कुछ मत बताना।"
"पर बेटा, ये—मैं कैसे..." माया हकला गई।
"आंटी, चुपचाप जेब में रख लो," कहते हुए दोनों बच्चे घर की ओर भाग गए।
माया की आँखों से दो आँसू टपक पड़े—इस बार दुख के नहीं, ख़ुशी के थे। और उसका दिल उन बच्चों को झोली भर-भर दुआएँ दे रहा था।
- डॉ अंजना गर्ग (सेवानिवृत)
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