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मानस में राम की स्तुतियाँ और नक्षत्र -आंनद मोहन सक्सेना , दतिया


 

तुलसी जयंती पर विशेष : 

मानस में राम की स्तुतियाँ और नक्षत्र     

                              राम भक्ति शाखा के प्रमुख स्तंभ श्री गोस्वामी तुलसीदास जी ने अपने रामचरित मानस के प्रथम सोपान बालकाण्ड में रावण के उपद्रव   लिखने के पश्चात् प्रभु श्री राम की जो स्तुतियां लिखी हैं वे नक्षत्र मंडल में विभिन्न नक्षत्र के तारों की संख्या, आकृति व स्वभाव से साम्य रखती है | यह एक संयोग है या कवि की अद्भुत प्रतिभा अथवा प्रभु श्री राम की असीम कृपा और महिमा | जो भी हो कुछ विद्वानों ने इस ओर ध्यान दिया है | मानस पीयूष में खंड 2, पृष्ठ 922 पर  लिखा है 

"  28 नक्षत्र से नक्षत्र चक्र बना है वैसे ही स्तुति रूपी नक्षत्र चक्र मानस में है | "

        मानस में हर नक्षत्र से जुड़ी हुई स्तुति का नक्षत्र के स्वरूप में तारों की संख्या के अनुसार प्रभु के विभिन्न रूपों की स्तुति अथवा छंदो, पंक्तियों की संख्या,  उसकी आकृति, स्वभाव अथवा गुणो के अनुसार   है |

                मानस पीयूष में उन्होने केवल प्रथम स्तुति में कुछ संकेत दिये है इन्ही संकेतो को आधार बनाकर   हर स्तुति की व्याखा अपने विचार से प्रस्तुत कर रहा हूँ  |

         प्रथम स्तुति  अश्वनी नक्षत्र में है यही नक्षत्र गड़ना मरी प्रथम नक्षत्र है तथा स्तुति  ब्रह्मा द्वारा की गई है जो सृष्टि के आदि  है | इस स्तुति को पढ़ने में 

भगवन्ता कांता करनी धरनी आदि शब्दों में घोड़ी की चाल से मिलती-जुलती आवाज भी आती है | इसमें प्रभु के तीन रूपों की स्तुति की गई है क्योंकि इस नक्षत्र में तीन तारे हैं अतः प्रभु के तीन रुपों में स्तुति की गई है |

 प्रथम नारायण रूप की स्तुति है | जो सृष्टि के आदी हैं और जिनके बारे में कृष्ण यजुर्वेद में नारायण उपनिषद दिया गया है|

    महभारत के शांति पर्व में कहा है  -

 ईश्वरो हि जगत्स्रष्टा प्रभु र्नारायणो विराट |

भूतान्तरात्मा वरदः सगुणो निरगुणोsपि च ||12/347||         विराट स्वरूप भगवान नारायण इस जगत के के ईश्वर हैं वे ही सब जीवो  की अंतरात्मा वरदाता सगुण और निर्गुण रूप है |

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवंता ।

गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिधुंसुता प्रिय कंता ॥

पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई ।

जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई ॥1||

         

इसके बाद कवि ने सगुण रूप की स्तुति दी है क्योंकि वह सगुण रूप के आराधक है यद्यपि उन्होंने निर्गुण रूप  का भी श्रद्धा सहित वर्णन किया है |

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा ।

अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा ॥

जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगतमोह मुनिबृंदा 

निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा ॥2||

       इस पद में महाकवि ने प्रभु के सगुण  प्रभु की चर्चा की है | जिनके 

संबंध में वेदों में कहा गया है | 

 अविनाशी तत्व की बात इस प्रकार है 

     उद्गीतमेतत् परमं तु ब्रह्म

           तस्मिंस्त्रयं सुप्रतिष्ठाक्षरं च |

                      7|1 श्वेतास्वतरोपनिषद

     यह वेद वर्णित  ब्रह्म सर्वश्रेष्ठ आश्रय और अविनाशी है और इसमें तीनों लोक स्थित है |

 सब घट वासी का संकेत इस प्रकार है 

    अणोरणीयन् महतो महिया-

                 नत्मा गुह्यायां निहितोस्य जन्तो: |

      तमक्रतुं पश्यति वीतशोको

                    धातु: प्रसादन्महिमानमीश्म्  ||3/20||

 श्वेतास्वतरोपनिषद व कठ उपनिषद 1/220||

    सूक्ष्म से भी अति सूक्ष्म बड़े से भी बहुत बडे आत्मा- परमात्मा जीव की हृदय रूपी गुफा  में छिपा हुआ है | धातु अर्थात सब की रचना करने वाले परमेश्वर की कृपा से जो मनुष्य उसे संकल्प रहित परमेश्वर को और उसकी महिमा को समझ लेता है वह दुखों से रहित हो जाता है |

              तीसरे चौथे पद में भगवान के विष्णु स्वरूप की स्तुति की गई है जो अवतरों के जाने जाते है और अपनी समस्या भी बताई है | भगवान विष्णु की ऋग्वेद में स्तुति किस प्रकार की गई है 

 विष्णोर्नु कं वीर्याणि प्र वोचं यः पार्थिवानि विममे रजांसि। 

यो अस्कभायदुत्तरं सधस्थं विचक्रमाणस्त्रेधोरुगायः॥ 1.154.1


अर्थ: मैं विष्णु के पराक्रमों का वर्णन करता हूँ, जिन्होंने पृथ्वी के लोकों को मापा, जो अंतरिक्ष को स्थिर करते हैं, और जो तीन बार (तीन पगों से) विचरण करते हुए, तीनों लोकों में व्याप्त हैं। 

   जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा ।

सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा ॥

जो भव भय भंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा ।

मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुर जूथा ॥3||


सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहि जाना ।

जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना ॥


भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा ।

मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कंजा ॥4||

               तुलसीदास जी ने दोहावली के पद क्रमांक456  में अश्वनी नक्षत्र को कार्य पूर्ण करने वाले नक्षत्र में वर्गीकृत किया है इसलिए देवताओं की प्रार्थना भी तत्काल सुनी गई और उन्हें आश्वासन मिला और फिर दुष्टों का संहार भी हुआ | इसीलिये मानस पीयूष में इस स्तुति की फल श्रुति 

"जग मंगल गुण ग्राम राम के |1/32/2 बताया है |'

           इस प्रकार हमने देखा कि तुलसीदास जी के स्तुति के लिए चुने गए नक्षत्र की तीन तारों युक्त संरचना के अनुरूप ही प्रभु की तीन रूपों बंदना है और प्रभाव भी  नक्षत्र के अनुरूप ही है | उनकी प्रार्थना सुनी गई और प्रभु के अवतार लेने उनके दुख दूर होने की की शुभ सूचना प्राप्त हुई |     

         इस प्रकार हम देखते है कवि ने किस प्रकार शास्त्रों वर्णित प्रभु के तीन रूपो में स्तुति की गई है तुलसी जयंती के पावन अवसर पर उन्हें और उनकी अमर कृति मानस को नमन ।

 - आंनद मोहन सक्सेना , दतिया

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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