प्रेमचंद के कथा साहित्य में किसान
--पद्मा मिश्रा,जमशेदपुर
भारतीय साहित्य के सृजन,और रचनाधर्मिता के मूल लेखनमें सर्वहारा वर्ग और समाज की नींव व् रीढ़ कहे जाने वाले किसान वर्ग पर सबसे ज्यादा लिखा गया क्योंकि किसान ग्राम देवता है ,धरती का उपकार
है,श्रृंगार है। समाज को श्रम व् लगन ,त्याग और तपस्या कासर्वोत्तम पाठ पढ़ाने वाला गुरु भी है तो युग निर्माता भी। भारतेंदु से प्रारंभ हुए आधुनिक गद्य काल में भी अंग्रेजी शासन का शिकार नील की खेती करने वाले शोषित किसानो पर भी खूब लिखा गया। भारतेंदु ने अपनी विश्व प्रसिद्द कृति ''नील देवी ''में 'निलहे किसानो की पीड़ा को उनकी गरीबी की विभीषिका को बखूबी दर्शाया है *भारतेंदु मंडल के लागभग सभी लेखकों ने इस मार्मिक धरती पुत्रों की पीड़ा को अपने लेखन का विषय बनाया है इस सन्दर्भ में प्रेमचन्द जी का नाम विशेष उल्लेखनीय है -वे धरती से जुड़ कर जीना चाहते थे खेतिहर किसानो श्रमिको का दर्द और संघर्ष उनकी चेतना को झकझोरता था । बालकृष्ण भट्ट ,सरदार पूर्ण सिंह ,भवानी प्रसाद मिश्र ,बेनीपुरी आदि कवियों लेखकों काभी योगदान रहा है .*प्रेमचन्द जी ने अपने उपन्यास ''गोदान 'में किसान होरी के माध्यम से उनकी पीड़ा को दर्द को ,मजबूरियों को और उनके अंतर्द्वन्द्ध कामार्मिक चित्रण किया है *किसान पक्का स्वार्थी होता है, इसमेंसंदेह नहीं। उसकी गाँठ से रिश्वत के पैसे बड़ी मुश्किल से निकलते हैं, भाव-ताव में भी वह चौकस होता है, ब्याज की एक-एक पाई छुड़ाने के लिए वह महाजन की घंटों चिरौरी करता है, जब तक पक्का विश्वास न हो जाय, वह किसी के फुसलाने में नहीं आता, लेकिन उसका संपूर्ण जीवन प्रकृति से स्थायी सहयोग है। वृक्षों में फल लगते हैं, उन्हें जनता खाती है। खेती में अनाज होता है, वह संसार के काम आता है; गाय के थन में दूध होता है, वह खुद पीने नहीं जाती, दूसरे ही पीते हैं।
मेघों से वर्षा होती है।उससे पृथ्वी तृप्त होती है। ऐसी संगति में कुत्सितस्वार्थ के लिए कहाँ स्थान?
होरी किसान था और किसी के जलते हुए घर में हाथसेंकना उसने सीखा ही न* था।' होरी भारतीय कृषक ही नहीं बल्कि तत्कालीन समाजकी विसंगतियो का जीता जगता प्रमाण बना उनका प्रतिनिधि ही था जो अपनी परिस्थितियों से जूझता हुआ समाज की पंडितों ब्राह्मणों और साहूकारों की अनैतिक दुनिया कोचुनौती दे रहा था। प्रेमचन्द भी किसान वर्ग के प्रतिनिधि लेखक थे .जो उनकी व्यथा को उनके श्रम व् त्याग की गाथा अपने उपन्यासों कहानियों के माध्यम से समाज के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे थे ।'गोदान का होरी परिश्रमी तो है पर साहूकारों के छल को भी समझता है ,और उन्हें भी छोटी मोटी बातों पर धोखे में रखताथा प्रेमचन्द लिखते हैं *''इस व्यवहार का वह आदी था। कृषक के जीवन का तो यहप्रसाद है। भोला के साथ वह छल कर रहा था और यह व्यापार उसकी मर्यादा के अनुकूल न था। अब भी लेन-देन में उसके लिए लिखा-पढ़ी होने और न होने में कोई अंतर नथा। सूखे-बूड़े की विपदाएँ उसके मन को भीरु बनाए रहती थीं। ईश्वर का रुद्र रूप सदैव उसके सामने रहता था; पर यह छल उसकी नीति में छल न था। यह केवल स्वार्थ-सिद्धि थी और यह कोई बुरी बात न थी।*सामने कसमें खा जाता था कि एक पाई भी नहीं ।
इस तरह का छल तो वह दिन-रात करता रहता था। घर में दो-चार रुपए पड़े
रहने पर भी महाजन के *है। किसानो के दुःख दर्द को ही अभिव्यक्त किया हैउन्होंने इस कहानी में तत्कालीन समय -वातावरण और परिस्थितियों को आधार बनाया है।
जब खेतिहर किसान की जीवन दशा और दूभर हो गई थी श्रम व् शोषण की चक्की में पिसते गरीब किसानो -मजदूरों पर दोहरी मारपड़ रही थी।
..प्रेमचन्द जी इस बात से विचलित हो स्वयम कहते हैं --रंगभूमि में भी प्रेमचन्द ने इस संघर्ष भरी जिन्दगी को अपने की आँखों से भरपूर महसूस किया है *''जॉन सेवक-कच्चा माल पैदा करना तुम्हारा काम होगा। किसान को ऊख या जौ-गेहूँ से कोई प्रेम नहीं होता। वह जिस जिन्स के पैदा करने
में अपना लाभ देखेगा वही पैदा करेगा। इसकी कोई चिंता नहीं है। खाँ साहब, आप उस पण्डे को मेरे पास कल जरूर भेज दीजिएगा।*--''-;[रंगभूमि ]
--एक किसान के जीवन की त्रासदी जिजीविषा की हजारों कहानियों को जन्म दे जाती है प्रेम चंद की सम्वेदना है उन जमींनसे जुड़े लोगों के साथ।..
प्रेमचंद के समकालीन प्रायः सभी लेखकों ,कवियों ने सर्वहारा वर्ग ,किसानो
,एवं श्रमजीवी वर्ग के शोषण ,उनके सामाजिक और जातीय संघर्ष ,सामन्तवाद ,गरीबी व् सामाजिक विषमताओं को ही अपनी रचना का विषय नहीं बनाया है ,बल्कि उनके जीवन में आये हर्ष उल्लास क्षणों ..आकाश में छाये काले काले मेघों को देखकर जिस तरह मन मयूर नाच
उठते हैं ---किसान का मन भी झूम उठता है यों कहें भारतीय जनमानस की चेतना से कृषक वर्ग को कभी अलग नहीं किया जा सकता
,--प्रकृति के सुंदर रूप हों या भयंकर ,गरीबी की विभीषिका हो या जीवन के सत्य
शिव सुंदर रूप को दर्शाते हर्ष -उल्लास के पल हों --किसान झूम कर नाचता है
गाता है अपनी मनोभावनाओं को व्यक्त करता है --वह समाज की भूख मिटाता है पर. स्वयम भूखा रह कर धरती की हरियाली को जीवंत रखता है .यही कारण है कि समाज का दर्पण कहे जाने वाले भारतीय साहित्यकी मूलभूत कल्पना ,संवेदना और मानवीय अनुभूतियों की व्यापकता से धरतीपुत्र कभी अलग नहीं हो पाया है .उसका संघर्ष ,जिजीविषा ,अथक श्रम ---रत्नगर्भा धरती का रत्न बन जन मानस को छू लेती हैं ।
गांधीवाद के प्रभाव के कारण भी कृषक ,श्रम ,ग्रामीण जीवन ,और पृकृति से जुडी
भावनाएं डॉ हजारी प्रसाद द्वेदी और उनके समकालीनो के सृजन का अंग बनती चली गईं।उनका कहना था ---''मनुष्य में यदि विवेक जागृत नहीं हो सका ,यदि उदारतासमता सम्वेदनशीलता ,का विकास नहीं हुआ ..तो वह पशु से भिन्न नहीं है ''
उनके कुटज.नामक निबन्ध का उद्देश्य भी यही रहा है .। नई पीढ़ी इस विषमता को नहीं अपना पा रही थी --जैसे गोदान का गोबर हर अन्याय का। विरोध करना चाहता है ,,प्रेमचन्द दूरदर्शी थे अतः समाज की नब्ज पहचानते थे> --गोबर के माध्यम से एक सन्देश देना चाहा है ---*गोबर ने प्रतिवाद किया - यह सब कहने की बातें हैं। हम लोग दाने-दाने को मुहताज हैं, देह पर साबित कपड़े> नहीं हैं, चोटी का पसीना एड़ी तक आता है, तब भी गुजर नहीं होता। उन्हें क्या, मजे से गद्दी-मसनद लगाए बैठे हैं, सैकड़ों नौकर-चाकर हैं, हजारों आदमियों पर हुकूमत है। रुपए न जमा होते हों; पर सुख तो सभी तरह का भोगते हैं। धन ले कर आदमी और क्या करता है?''*
अतः भारतीय उपन्यासों में कृषक वर्ग अनुभूतियों .जन जागरण ,बौद्धिक चेतना औरअपने अधिकारों के लिए संघर्ष ,विरोध और विप्लव के स्वरों में मुखरित हुआ है।
--वह जन का प्रतीक है ,वह राष्ट्र का मुखर संगीत है --गौरव है --साहित्य में
प्राण बन सदैव मुखरित रहे --यही कामना है .
- पद्मा मिश्रा.जमशेदपुर.