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कहानी : मिट्टी का कर्ज - हरनारायण कुर्रे प्रधान पाठक पामगढ़


 कहानी :  

मिट्टी का कर्ज

    गाँव की कच्ची पगडंडी के किनारे मिट्टी और फूस का छोटा-सा घर था। वहीं जन्मा था अलगू – गरीब किसान का बेटा। पिता खेतों में पसीना बहाते और माँ घर व आँगन सँवारतीं। अलगू भी छोटी उम्र से ही काम में हाथ बँटाता। उसका बचपन बेहद साधारण था, पर सपने बहुत बड़े थे।

गाँव के सरकारी स्कूल में पढ़ाई शुरू हुई। बरसात में छत से पानी टपकता और गर्मियों में टीन की छत तपती, फिर भी मास्टरजी जोश से पढ़ाते। अलगू फटी किताबों को धागे से सीकर पढ़ता। छोटी-सी पेंसिल उसकी उँगलियों में चुभने लगती, लेकिन वह हार नहीं मानता।शिक्षा और प्रेरणा

गणित और हिंदी में उसकी पकड़ मज़बूत थी। गाँव के मेले में निबंध प्रतियोगिता हुई तो उसने “मिट्टी की महिमा” पर इतना अच्छा लिखा कि पहला इनाम जीता। मास्टरजी ने गर्व से कहा—“अलगू, तेरी मेहनत तुझे दूर ले जाएगी।” यह सुनकर उसके सपनों को नया पंख मिल गया।

पिता ने कर्ज लेकर अलगू को कस्बे के हाई स्कूल में दाखिला दिलाया। वहाँ पंखे चलते थे, लाइब्रेरी में किताबों का भंडार था, लेकिन उसका मन हमेशा गाँव की मिट्टी में ही बसता। छुट्टियों में लौटकर वह बच्चों को शहर की कहानियाँ सुनाता और कहता—“शहर में इमारतें तो हैं, पर मिट्टी की महक नहीं।”गाँव से सेना तक एक दिन चौपाल पर डाकिया अखबार लाया, जिसमें छपा था—“सीमा पर संघर्ष, कई जवान शहीद।” यह पढ़ते ही अलगू का हृदय काँप उठा। उसे लगा कि मिट्टी का कर्ज चुकाने का समय आ गया है। उसने पिता से कहा—“आप खेत सँभालना, मैं देश की मिट्टी सँभालूँगा।”

माँ आँचल से आँसू पोंछते हुए बोलीं—“जाना बेटा, लेकिन लौटकर आना… चाहे तिरंगे में ही क्यों न हो।” पिता चुप रहे, पर आँखों में गर्व और दर्द दोनों थे। पूरे गाँव ने उसे आशीर्वाद देकर विदा किया। अलगू सेना में भर्ती हो गया।सेना का जीवन ,सेना की ट्रेनिंग बेहद कठिन थी। कभी तपते रेगिस्तान में दौड़ना पड़ता, तो कभी बर्फ़ीली चोटियों पर कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहना पड़ता। अलगू हर कठिनाई में गाँव की मिट्टी और माँ के आशीर्वाद को याद करता। साथियों से कहता—“ये मिट्टी ही मेरी ताक़त है।”

सर्दियों की एक रात सीमा पर दुश्मन ने हमला किया। गोलियों की बौछार और धुएँ के बीच अलगू ने मोर्चा संभाला। अचानक एक गोली उसके सीने को चीर गई, पर उसने तिरंगा कसकर पकड़ा रखा। अंतिम सांसों में साथी से कहा—“बापू से कहना, मैंने खेत नहीं, मिट्टी संभाली।”

 बलिदान और अमरता

कुछ दिनों बाद गाँव में सेना की गाड़ी पहुँची। उसमें तिरंगे में लिपटा अलगू का पार्थिव शरीर था। पूरा गाँव रो पड़ा। पिता ने तिरंगे को माथे से लगाकर कहा—“तूने मिट्टी का कर्ज चुका दिया बेटा।” माँ की आँखों में आँसू थे, पर चेहरे पर गर्व भी था।

उस दिन से जब भी सरसों के खेत हवा में लहराते हैं, लोग कहते हैं—“ये अलगू की मिट्टी है, जिसमें बलिदान की खुशबू बसी है।” यह कहानी विद्यार्थियों को सिखाती है कि गरीबी और कठिनाइयाँ कभी बाधा नहीं होतीं, यदि हृदय में मातृभूमि और मिट्टी के प्रति सच्चा प्रेम हो...।

 - हरनारायण कुर्रे प्रधान पाठक 

शासकीय पूर्व माध्यमिक शाला डुड़गा 

विकास खण्ड पामगढ़ जिला जांजगीर चांपा छत्तीसगढ़

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

1 Comments

  1. बहुत सुंदर भावपूर्ण रचना sir रोंगटे खड़े हो गए देशभक्ति की इस भावपूर्ण रचना से 👌👌👌👌👌

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