काव्य :
सीमांकन
तपते सूरज का सीना फाड़,
जूझते,लड़ते,भिड़ते हैं यार,
तब होता है सीमांकन,
भीड़-भाड़ में थक-हारकर कर,
बैठ जायें हम रुक-रुककर,
फिर भी अपना पग बढ़ाते हैं थक-थककर,
तब होता है सीमांकन,
नक्शा में कहीं बटा नंबर नहीं,
मूल सीमा को चिन्हांकित कर,
कब्जे को पृथक पृथक मिलाकर,
तब होता है सीमांकन,
मुड़े नक्शा को सीधा कर,
बार बार गुनिया को चलाकर,
पसीने से चेहरा तर-बतर,
कपड़े से उसे पोंछ-पोंछ कर,
नजरों में छा जाता है अंधेरा ,
तब होता है सीमांकन,
बंद टिफिन कभी-कभी खुलता नहीं,
वापस घर लाते हैं उसे धरकर,
तब होता है सीमांकन,
शासकीय सीमा को अलग कर,
आबादी को भी हैं मिलाते,
नदी -नाला के सीमा को देख,
बहाव का अंदाजा भी हैं लगाते ,
तब होता है सीमांकन,
फिर सुबह होकर तैयार,
निकल पड़ते हैं छोड़ घर -द्वार,
तब होता है सीमांकन,
- दीपक कुमार दास
पटवारी
कसडोल, जिला बलौदाबाजार
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काव्य
सीमांकन की रेखा खींची है हमने,
ReplyDeleteसीमाओं को पहचाना, समझा है हमने।👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻👍🏻🎉🎉🎉👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻👏🏻
अपने निजी अनुभवों को साझा करने का अत्यंत सराहनीय प्रयास 👍🏻
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