काव्य :
नदी और नारी
धरा की अविरल धारा जैसी,
नदी और नारी की जीवन गाथा।
सुगम, सरल, तरल प्रवाह ही
लोक-हित का बनता पाथा।।(पथ)
स्पर्श पाकर जिनका सतत,
पत्थर भी निर्मल हो जाता।
नदी-नारी का अस्तित्व ही,
धरा को पावन पुण्य बनाता।।
नदी बँधन को न माने फिर भी
सागर ओर ही बहती जाती।
नारी रिश्तों में निश्छल बहकर,
त्याग को हँसकर सहती जाती।।
नदी कहो या नारी ,दोनों
अवनि के संजीवन आधार।
सृजन धात्री प्रकृति स्वरूपा,
पातीं सृष्टि का स्नेह अपार।
- नीता श्रीवास्तव श्रद्धा , भोपाल
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