आदिकवि महर्षि वाल्मीकि की भाव दृष्टि
विवेक रंजन श्रीवास्तव
भोपाल
संस्कृत साहित्य के आदि स्रोत के रचयिता, महाकाव्य परंपरा के प्रवर्तक, करुणा रस के जन्मदाता महर्षि वाल्मीकि की भाव दृष्टि भारतीय काव्य चेतना का मूलाधार है। जब एक क्रौंच जोड़े के वियोग में व्याकुल होकर उनके हृदय से स्वतः स्फुरित हुआ "मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः। यत्क्रौंचमिथुनादेकमवधीः काममोहितम्॥"
तब केवल एक श्लोक का जन्म नहीं हुआ, बल्कि संपूर्ण भारतीय काव्य परंपरा का उद्गम हुआ। यह श्लोक उनकी भाव दृष्टि का प्रतीक है, जहाँ करुणा, न्याय और सौंदर्य का अद्भुत संगम है।
महर्षि वाल्मीकि की भाव दृष्टि का केंद्रीय तत्व करुणा है। रामायण का प्रारंभ ही करुणा से होता है। एक निरीह पक्षी की हत्या देखकर उन का हृदय द्रवित हो उठा। यह करुणा केवल मनुष्यों तक सीमित नहीं है, बल्कि संपूर्ण जीव जगत के प्रति उनकी संवेदनशीलता को दर्शाती है। रामायण में सीता के वनवास, भरत की विरह व्यथा, उर्मिला का मौन त्याग, शबरी की भक्ति, और जटायु का आत्मबलिदान, सभी प्रसंगों में करुणा रस की अविरल धारा प्रवाहित होती है। महर्षि वाल्मीकि ने दिखाया कि करुणा दुर्बलता नहीं, बल्कि मानवता का सर्वोच्च गुण है।
श्रीराम का रावण के प्रति युद्ध के बाद का व्यवहार, विभीषण के प्रति सम्मान, और यहाँ तक कि शत्रुओं के प्रति भी मानवीय दृष्टिकोण, महर्षि वाल्मीकि की करुणामय भाव दृष्टि को प्रकट करता है।
महर्षि वाल्मीकि की दृष्टि में धर्म केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन का व्यावहारिक दर्शन है।श्री राम उनके लिए मर्यादा पुरुषोत्तम मनुष्य हैं, न कि निर्दोष देवता। महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को मानवीय दुर्बलताओं और संघर्षों के साथ प्रस्तुत किया। सीता निर्वासन का प्रसंग इस बात का प्रमाण है कि महर्षि वाल्मीकि ने राजधर्म और व्यक्तिगत धर्म के बीच के द्वंद्व को ईमानदारी से चित्रित किया। उनकी भाव दृष्टि में धर्म का अर्थ है सत्य, न्याय, करुणा और कर्तव्य का समन्वय है। दशरथ की भूल, कैकेयी का मोह और अहंकार, राम का आज्ञाकारी पुत्र होना , लक्ष्मण का भ्रातृ प्रेम, सभी पात्रों के माध्यम से महर्षि वाल्मीकि ने दिखाया कि धर्म सदैव सरल नहीं होता, वह जटिल परिस्थितियों में कठिन निर्णय माँगता है।
महर्षि वाल्मीकि की भाव दृष्टि में स्त्री का स्थान अत्यंत गरिमामय है। सीता केवल पतिव्रता नारी नहीं, बल्कि स्वाभिमानी, साहसी और निर्णायक व्यक्तित्व की धनी हैं। अग्नि परीक्षा के बाद भी जब राम ने उन्हें त्यागा, तो सीता ने अपना आत्मसम्मान बनाए रखा और अंततः धरती में समा गईं। यह उनकी स्वतंत्र इच्छा का प्रतीक है। कैकेयी को महर्षि वाल्मीकि ने खलनायिका के रूप में नहीं, बल्कि एक जटिल मनोविज्ञान वाली स्त्री के रूप में चित्रित किया। मंथरा के माध्यम से उन्होंने दिखाया कि कैसे ईर्ष्या और असुरक्षा मनुष्य को गलत रास्ते पर ले जाती है। शबरी, अहिल्या, तारा, मंदोदरी, सभी स्त्री पात्रों को महर्षि वाल्मीकि ने गहन मानवीय संवेदना के मनोविज्ञान के साथ रचा है।
वाल्मीकि की भाव दृष्टि में प्रकृति केवल पृष्ठभूमि नहीं, बल्कि एक सजीव पात्र है। चित्रकूट, पंचवटी, किष्किंधा, लंका, प्रत्येक स्थान का वर्णन इतना जीवंत है कि पाठक स्वयं को वहाँ अनुभव करता है। ऋतु वर्णन, वन वर्णन, नदी वर्णन, सभी में वाल्मीकि का सूक्ष्म निरीक्षण और गहन प्रकृति प्रेम प्रकट होता है। प्रकृति उनके काव्य में मनुष्य के भावों का प्रतिबिंब भी है। राम के वनवास में प्रकृति उदास है, युद्ध के समय उग्र है, और मिलन के क्षणों में प्रफुल्लित है। यह सौंदर्य बोध और प्रकृति के साथ तादात्म्य वाल्मीकि की अद्वितीय भाव दृष्टि का परिचायक है।
वाल्मीकि ने मानवीय संबंधों को अद्भुत गहराई और सूक्ष्मता से चित्रित किया है। राम और लक्ष्मण का भ्रातृ प्रेम, राम और भरत का आदर्श संबंध, राम और सीता का दांपत्य, राम और हनुमान की स्वामी सेवक भक्ति का विलक्षण वर्णन, सुग्रीव और बालि का द्वंद्व, प्रत्येक संबंध में वाल्मीकि ने मानवीय भावनाओं की जटिलता को उकेरा है। विशेष रूप से भरत का चरित्र वाल्मीकि की मनोवैज्ञानिक दृष्टि का उत्कृष्ट उदाहरण है। सिंहासन पर राम की चरण पादुका रखकर भरत का राज्य करना, त्याग और भक्ति की पराकाष्ठा है। उर्मिला का मौन त्याग, जो महाकाव्य में प्रत्यक्ष रूप से वर्णित नहीं है, फिर भी उस दृश्य की उपस्थिति महत्वपूर्ण है।
वाल्मीकि की भाव सृजनात्मक क्षमता की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने रावण को एकआयामी खलनायक नहीं बनाया। रावण विद्वान, पराक्रमी, शिव भक्त और महान राजा है। उसकी एक कमजोरी, काम वासना, उसके पतन का कारण बनती है। वाल्मीकि ने दिखाया कि हर व्यक्ति में अच्छाई और बुराई दोनों होती हैं। विभीषण के माध्यम से वाल्मीकि ने बताया कि धर्म के लिए अपने परिवार का भी विरोध करना पड़ सकता है। इंद्रजीत, कुंभकर्ण, सभी पात्रों को मानवीय गरिमा के साथ प्रस्तुत किया गया है। यह समग्र मानवीय दृष्टि वाल्मीकि को महानतम बनाती है।
वाल्मीकि की रामायण में भक्ति और ज्ञान का अद्भुत समन्वय है। राम केवल शक्तिशाली योद्धा नहीं, बल्कि ज्ञानी और विवेकशील हैं। हनुमान की भक्ति में ज्ञान और बल का संयोग है। जटायु का आत्मबलिदान भक्ति की पराकाष्ठा है। वाल्मीकि ने दिखाया कि सच्ची भक्ति अंधविश्वास नहीं, बल्कि प्रेम, समर्पण और कर्तव्य पालन है। उनकी दृष्टि में भक्ति और कर्म, ज्ञान और प्रेम, सभी का संतुलित स्थान है।
वाल्मीकि की भाव पूर्ण दृष्टि में सामाजिक और राजनीतिक चेतना स्पष्ट दिखाई देती है। राजधर्म, प्रजा पालन, न्याय व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, सभी पर उनके विचार शाश्वत बन पड़े हैं। राम का वनवास पिता की आज्ञा का सम्मान है, भले ही वह स्वयं दशरथ के लिए व्यक्तिगत रूप से कितना कष्टदायक हो। शबरी और निषादराज गुह के माध्यम से वाल्मीकि ने समाज के अपेक्षाकृत विपिन्न वर्गों के प्रति संवेदना व्यक्त की है। यह उनकी व्यापक सामाजिक भाव दृष्टि का परिचायक है।
वाल्मीकि की दृष्टि उनके काव्य शिल्प में भी प्रतिबिंबित होती है। श्लोक रचना, अलंकार, उपमा, रूपक, सभी में स्वाभाविकता है। उनकी भाषा सरल, प्रवाहमय और हृदयस्पर्शी है। वे कहीं भी कृत्रिमता का आश्रय नहीं लेते। युद्ध वर्णन में वीर रस, विरह प्रसंगों में करुण रस, प्रकृति वर्णन में शांत रस, सभी रसों का स्वाभाविक संचार उनके काव्य में है। यह काव्य शिल्प और भाव सौंदर्य का अद्भुत समन्वय वाल्मीकि को आदि कवि बनाता है। उन्होंने काव्य धारा के स्त्रोत से जो अविरल धारा उत्खनित की है वह निरंतर भी रही है।
महर्षि वाल्मीकि की भाव दृष्टि केवल एक काल या समाज तक सीमित नहीं है, वह शाश्वत और सार्वभौमिक है। वह केवल संस्कृत भाषा की पूंजी नहीं, वह ऐसी चेतना है जो अभिव्यक्ति है, इसीलिए हिंदी सहित प्रत्येक भाषा का मूल आधार बनी । उनकी करुणा, मानवीयता, धर्म बोध, प्रकृति प्रेम, और समग्र जीवन दृष्टि आज भी प्रासंगिक है। शाश्वत है महर्षि वाल्मीकि ने रामायण के माध्यम से न केवल एक महाकाव्य रचा, बल्कि जीवन जीने की एक पद्धति, एक दर्शन और एक आदर्श का समग्र संस्कार प्रस्तुत किया। एक संस्कृति की रचना की है। उनकी भाव दृष्टि हमें सिखाती है कि जीवन में संघर्ष, द्वंद्व और कठिनाइयाँ अनिवार्य हैं, लेकिन करुणा, धर्म, और मानवीयता के साथ इन्हें पार किया जा सकता है। वाल्मीकि सच्चे अर्थों में आदि कवि हैं क्योंकि उन्होंने काव्य को केवल शब्द विन्यास नहीं, बल्कि हृदय की अभिव्यक्ति, जीवन का दर्पण और मानवता का संदेश बनाया।
आज जब संसार हिंसा, द्वेष और असहिष्णुता से जूझ रहा है, महर्षि वाल्मीकि की करुणामय भाव दृष्टि एक प्रकाश स्तंभ की तरह हमारा मार्गदर्शन कर सकती है। उनका संदेश सरल है। मनुष्य बनो, संवेदनशील बनो, धर्म का पालन करो, और सभी प्राणियों के प्रति करुणाभाव रखो। यही सच्ची मानवता है, यही जीवन का सार है। उनकी रचना से महर्षि वाल्मीकि किसी वर्ग मात्र के आराध्य नहीं वे मानव मात्र के वैश्विक नायक के स्वरूप में प्रतिष्ठित किए जाने चाहिए।
विवेक रंजन श्रीवास्तव भोपाल
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