स्क्रीन के साए में खोता बचपन: परिवार की भूमिका
[डिजिटल दुनिया और परिवार: संतुलन का सूत्र]
[ऑनलाइन दुनिया और ऑफलाइन जुड़ाव: परिवार की जिम्मेदारी]
आज का युग तकनीक का युग है, जिसने बच्चों के जीवन को अभूतपूर्व गति और संभावनाओं से भर दिया है। स्मार्टफोन की चमक, टैबलेट की सहजता और इंटरनेट की असीम दुनिया ने ज्ञान के नए द्वार खोले हैं, लेकिन साथ ही एक ऐसी छाया भी डाली है, जो बच्चों के बचपन को धीरे-धीरे लील रही है। तकनीकी लत अब महज आदत नहीं, बल्कि एक गंभीर चुनौती बन चुकी है, जो बच्चों के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास को गहराई से प्रभावित कर रही है। यह लत उन्हें स्क्रीन की आभासी दुनिया में कैद कर रही है, जहाँ वास्तविक जीवन की रंगत, रिश्तों की गर्माहट और प्रकृति का स्पर्श धीरे-धीरे विलुप्त हो रहा है। माता-पिता और समाज के लिए यह समझना अनिवार्य है कि यह लत क्यों गहरा रही है और इसे नियंत्रित करने के लिए प्रभावी कदम कैसे उठाए जाएँ।
तकनीकी लत का सबसे गहरा असर बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। लगातार स्क्रीन टाइम से चिंता, अवसाद और अकेलेपन की भावना बढ़ रही है। मनोवैज्ञानिक शोध बताते हैं कि डिजिटल उपकरणों पर अत्यधिक निर्भरता बच्चों की एकाग्रता, रचनात्मकता और आत्म-नियंत्रण को क्षीण करती है। सोशल मीडिया और गेमिंग ऐप्स डोपामाइन के स्तर को प्रभावित करते हैं, जिससे बच्चों में त्वरित संतुष्टि की लालसा बढ़ती है, जो धीरे-धीरे उनके धैर्य और संयम को कमजोर करती है। शारीरिक स्वास्थ्य पर भी इसका प्रभाव गंभीर है। लंबे समय तक स्क्रीन के सामने बैठने से दृष्टि दोष, नींद की अनियमितता और मोटापा जैसी समस्याएँ बढ़ रही हैं। एक अध्ययन के अनुसार, 8 से 18 वर्ष के बच्चे औसतन 7-8 घंटे प्रतिदिन स्क्रीन पर बिताते हैं, जिससे उनकी शारीरिक गतिविधियाँ और स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हो रहा है।
सामाजिक स्तर पर, तकनीक बच्चों को उनके परिवार और दोस्तों से काट रही है। पहले जहाँ बच्चे खेल के मैदानों में हँसी-खेल के साथ सामाजिक बंधन बनाते थे, अब वे अपने कमरों में स्क्रीन के साथ अकेले कैद हैं। यह सामाजिक अलगाव उनकी सहानुभूति, संवाद कौशल और भावनात्मक जुड़ाव को कमजोर कर रहा है। सोशल मीडिया पर प्रदर्शित अवास्तविक छवियाँ और तुलनात्मक संस्कृति बच्चों में आत्मविश्वास की कमी और हीनभावना को जन्म दे रही है, खासकर किशोरावस्था में, जब वे अपनी पहचान तलाश रहे होते हैं। यह दबाव उनके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालता है, जिसे अनदेखा करना खतरनाक हो सकता है।
इस चुनौती का समाधान परिवार और समाज के सहयोग से ही संभव है। तकनीक को पूरी तरह नकारना या बच्चों से छीन लेना व्यावहारिक नहीं है। इसके बजाय, माता-पिता को तकनीक के सकारात्मक और रचनात्मक उपयोग को प्रोत्साहित करना चाहिए। उदाहरण के लिए, डुओलिंगो, खान अकादमी या कोडिंग गेम्स जैसे वैज्ञानिक और शैक्षिक टूल बच्चों की रचनात्मकता और समस्या-समाधान कौशल को बढ़ा सकते हैं। माता-पिता को बच्चों के डिजिटल व्यवहार की निगरानी से ज्यादा, उन्हें तकनीक का जिम्मेदार और संतुलित उपयोग सिखाने पर ध्यान देना चाहिए। परिवार के साथ गुणवत्तापूर्ण समय, बाहरी गतिविधियों को प्रोत्साहन और खुला संवाद इस लत को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। तकनीक को बच्चों का शत्रु नहीं, बल्कि एक शक्तिशाली साधन बनाया जा सकता है, जो उनकी शिक्षा, रचनात्मकता और विकास को नई ऊँचाइयों तक ले जाए, बशर्ते इसका उपयोग संतुलित और जागरूक तरीके से हो।
आज के डिजिटल युग में तकनीकी लत से निपटने के लिए पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर सजग और रचनात्मक प्रयासों की आवश्यकता है। परिवार बच्चों को इस लत से बचाने में सबसे महत्वपूर्ण कड़ी है। माता-पिता को बच्चों के साथ गुणवत्तापूर्ण, तकनीक-मुक्त समय बिताने की आदत विकसित करनी चाहिए। यह समय खेलकूद, कहानी साझा करने, बागवानी, खाना पकाने या बोर्ड गेम्स जैसे रचनात्मक कार्यों में व्यतीत हो सकता है। उदाहरण के लिए, सप्ताह में एक "टेक-फ्री डे" निर्धारित करना, जहाँ परिवार एकजुट होकर प्रकृति या सामूहिक गतिविधियों का आनंद ले, बच्चों की स्क्रीन पर निर्भरता को स्वाभाविक रूप से कम कर सकता है। शोध दर्शाते हैं कि भावनात्मक रूप से जुड़ा हुआ परिवार बच्चों में डिजिटल उपकरणों की लत को कम करता है, क्योंकि वे परिवार के साथ समय को अधिक मूल्यवान समझने लगते हैं। इसके साथ ही, सामुदायिक गतिविधियाँ जैसे खेल क्लब, नाट्य मंडलियाँ, या पर्यावरण संरक्षण से जुड़े कार्यक्रम बच्चों को सामाजिक और रचनात्मक रूप से सक्रिय रखते हैं, जिससे तकनीक की ओर उनका झुकाव कम होता है।
तकनीकी लत से निपटने का एक अनिवार्य पहलू है बच्चों में आत्म-नियंत्रण और समय प्रबंधन की कला सिखाना। माता-पिता को बच्चों को प्राथमिकताएँ तय करने और डिजिटल उपकरणों का सीमित, उद्देश्यपूर्ण उपयोग सिखाना चाहिए। छोटे-छोटे कदम, जैसे रात के खाने के समय फोन बंद रखना या सोने से पहले एक स्क्रीन-फ्री घंटा, बच्चों में संतुलित आदतें विकसित कर सकते हैं। लेकिन यह तभी प्रभावी होगा, जब माता-पिता स्वयं अनुशासित व्यवहार का उदाहरण पेश करें। यदि माता-पिता दिनभर स्क्रीन से चिपके रहते हैं, तो बच्चे भी वही आदत अपनाएँगे। इसलिए, परिवार में स्पष्ट डिजिटल अनुशासन नियम लागू करना आवश्यक है, जैसे भोजन के समय उपकरणों का उपयोग निषेध करना या रात में सभी डिवाइस एक जगह रखना। यह न केवल बच्चों, बल्कि पूरे परिवार के लिए एक स्वस्थ डिजिटल संस्कृति को बढ़ावा देता है।
एक और महत्वपूर्ण, पर अक्सर अनदेखा पहलू, है बच्चों की भावनात्मक जरूरतों को समझना। तकनीकी लत कई बार भावनात्मक रिक्तता, तनाव या अकेलेपन का परिणाम होती है। माता-पिता को बच्चों से खुला संवाद करना चाहिए, उनकी चिंताओं को सुनना चाहिए और उन्हें यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वे सुरक्षित और समर्थित हैं। यह भावनात्मक जुड़ाव बच्चों को स्क्रीन की आभासी दुनिया से बाहर निकालकर वास्तविक रिश्तों की गर्माहट की ओर ले जाता है। स्कूलों की भी इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका है। डिजिटल साक्षरता, समय प्रबंधन और तकनीक के जिम्मेदार उपयोग पर कार्यशालाएँ बच्चों को शिक्षित कर सकती हैं। शिक्षक और स्कूल सामुदायिक गतिविधियों को प्रोत्साहित कर बच्चों को रचनात्मक और सामाजिक रूप से जोड़ सकते हैं।
तकनीकी लत का समाधान केवल बच्चों की जिम्मेदारी नहीं, बल्कि पूरे परिवार और समाज का दायित्व है। परिवार मिलकर ऐसी संस्कृति विकसित कर सकता है, जो तकनीक के लाभों को अपनाए, पर उसकी लत से बचे। यह चुनौती धैर्य, समझदारी और सामूहिक प्रयास माँगती है। तकनीक को बच्चों के जीवन का हिस्सा बनने देना चाहिए, लेकिन उसे उनके जीवन का केंद्र नहीं बनने देना चाहिए। परिवार का साथ, मार्गदर्शन और रचनात्मक गतिविधियों में सहभागिता बच्चों को तकनीकी लत से मुक्त करने की कुंजी है।
यह समझना जरूरी है कि तकनीक एक शक्तिशाली उपकरण है, न कि जीवन का आधार। बच्चों को यह सिखाया जाना चाहिए कि वे तकनीक का उपयोग अपनी रचनात्मकता, शिक्षा और सपनों को साकार करने के लिए करें। जब परिवार और समाज एकजुट होकर इस दिशा में काम करते हैं, तो बच्चे न केवल तकनीकी लत से मुक्त हो सकते हैं, बल्कि एक स्वस्थ, संतुलित और प्रेरणादायक जीवन की ओर भी अग्रसर हो सकते हैं। यह यात्रा चुनौतीपूर्ण हो सकती है, लेकिन परिवार के प्यार, समर्थन और सही मार्गदर्शन के साथ, यह निश्चित रूप से संभव है।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)