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मैं लड़की हूं - संकट नहीं, समाधान हूं- - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

 


[प्रसंगवश – 11 अक्टूबर: अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस]

मैं लड़की हूं - संकट नहीं, समाधान हूं!

[बेटी अब प्रतीक्षा नहीं करती — वह खुद इतिहास लिखती है]

[डिजिटल युग की बेटियां: तकनीक से बदलती दुनिया की दिशा]

     जब एक बालिका जन्म लेती है, वह केवल एक जीवन नहीं लाती—वह एक नई दृष्टि, अनंत संभावनाओं का सूर्य, और समाज को बदलने की अटल शक्ति लाती है। उसकी मुस्कान में भविष्य की गूंज और आंखों में सपनों का सागर छिपा है। लेकिन यह कटु सत्य भी है कि आज भी दुनिया के कई हिस्सों में वह भेदभाव, असमानता और अन्याय के साये में अपनी पहचान की लड़ाई लड़ रही है। अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस, जो हर साल 11 अक्टूबर को मनाया जाता है, केवल एक तारीख नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी उद्घोषणा है—“मैं लड़की हूं, मैं बदलाव की अगुआ हूं।” यह दिन बालिकाओं की अदम्य शक्ति का उत्सव है और उनके अनदेखे संघर्षों को सम्मान देने का आह्वान।

संयुक्त राष्ट्र ने 2025 के लिए इस दिवस का विषय चुना है—“मैं लड़की हूं, मैं बदलाव का नेतृत्व करती हूं: संकट की अग्रिम पंक्ति में लड़कियां”, यह विषय आज की सच्चाई को उजागर करता है—बालिकाएं अब परिवर्तन की प्रतीक्षा नहीं करतीं; वे उसकी सशक्त वाहक हैं। चाहे जलवायु परिवर्तन के खिलाफ संघर्ष हो, डिजिटल समानता की मांग हो, या सामाजिक न्याय की लड़ाई—हर मोर्चे पर बालिकाएं अपनी अमिट छाप छोड़ रही हैं। संकटों में, जब दुनिया ठहर जाती है, यही बालिकाएं आगे बढ़ती हैं। कोविड-19 महामारी इसका जीवंत उदाहरण है। यूनेस्को के आंकड़ों के अनुसार, उस दौरान लगभग 24 मिलियन बच्चे, विशेषकर लड़कियां, स्कूल छोड़ने के कगार पर थे। फिर भी, भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में किशोरियों ने मास्क बनाए, स्वास्थ्य जागरूकता फैलाई, और ऑनलाइन शिक्षा के लिए अपने समुदायों को प्रेरित किया। यह साबित करता है कि नेतृत्व उम्र या लिंग से नहीं, बल्कि दृढ़ संकल्प और संवेदना से परिभाषित होता है।

इन प्रेरक कहानियों के बीच एक कड़वी सच्चाई भी है। यूनिसेफ की 2023 की रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में 129 मिलियन लड़कियां स्कूल से वंचित हैं। प्राकृतिक आपदाओं, युद्धों और गरीबी के कारण सबसे पहले इन्हीं की शिक्षा छिनती है। जलवायु परिवर्तन जैसे संकटों में, लड़कियां न केवल पर्यावरणीय चुनौतियों का सामना करती हैं, बल्कि सामाजिक असमानता का भी शिकार बनती हैं। बांग्लादेश और भारत में बाढ़ व चक्रवातों के दौरान लड़कियों को अक्सर परिवार की जिम्मेदारियां उठानी पड़ती हैं, जिससे उनकी शिक्षा और स्वास्थ्य प्रभावित होते हैं। लेकिन यही लड़कियां समाधान की मशाल भी थाम रही हैं। मलावी और युगांडा में किशोरियां जलवायु कार्यकर्ता बनकर स्थानीय स्तर पर वृक्षारोपण और टिकाऊ खेती को बढ़ावा दे रही हैं। यह दिखाता है कि संकट की अग्रिम पंक्ति में लड़कियां केवल पीड़ित नहीं, बल्कि परिवर्तन की सशक्त अगुआ हैं।

डिजिटल असमानता एक और अनदेखा संकट है। आज डिजिटल पहुंच केवल सुविधा नहीं, बल्कि मौलिक अधिकार है। फिर भी, इंटरनेशनल टेलीकम्युनिकेशन यूनियन (आईटीयू) के 2024 के आंकड़ों के अनुसार, विकासशील देशों में केवल 37% महिलाएं और लड़कियां इंटरनेट का उपयोग करती हैं, जबकि पुरुषों के लिए यह आंकड़ा 43% है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में लाखों लड़कियों को स्मार्टफोन और डिजिटल शिक्षा की कमी झेलनी पड़ती है। यह केवल तकनीकी संसाधनों की कमी नहीं, बल्कि सामाजिक सोच का अभाव है। केन्या और नाइजीरिया में लड़कियां डिजिटल शिक्षा के लिए अभियान चला रही हैं, कोडिंग सीख रही हैं, स्टार्टअप शुरू कर रही हैं, और तकनीकी क्षेत्र में अपनी जगह बना रही हैं। यह एक नई क्रांति की शुरुआत है, जो हमें यह सवाल पूछने को मजबूर करती है—क्या हम वाकई अपनी लड़कियों को डिजिटल युग में नेतृत्व के लिए सशक्त कर रहे हैं?

लड़कियों की मानसिक दृढ़ता और आत्मविश्वास एक अनमोल शक्ति है, जिसे हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं। हम उन्हें सशक्त बनाने की बात करते हैं, लेकिन क्या हम उन्हें ठोकर खाकर फिर उठने का हौसला देते हैं? समाज लड़कियों से हर कदम पर पूर्णता मांगता है, पर गलतियों से सीखने की आजादी उन्हें शायद ही मिलती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की 2024 की रिपोर्ट के अनुसार, सामाजिक दबाव और लैंगिक असमानता के कारण किशोरियों में तनाव और चिंता की दर लड़कों से कहीं अधिक है। अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस हमें सिखाता है कि नेतृत्व का मतलब केवल जीत नहीं, बल्कि हर मुश्किल में खुद पर भरोसा कायम रखना है। हमें हर लड़की को यह यकीन दिलाना होगा कि उसकी आवाज अमूल्य है और उसकी असफलताएं उसकी कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी शक्ति का सबूत हैं।

परिवर्तन की शुरुआत घर की चौखट से होती है। क्या हम अपनी बेटियों को निर्णय लेने की आजादी देते हैं? क्या उनकी राय को बेटों जितना सम्मान मिलता है? एक अध्ययन बताता है कि भारत में केवल 27% परिवार किशोरियों को घरेलू फैसलों में शामिल करते हैं। नेतृत्व की नींव घर में पड़ती है। जब एक बेटी को यह विश्वास मिलता है कि वह गलती कर सकती है, उससे सीख सकती है, और फिर दुनिया को चुनौती दे सकती है, तभी वह सच्चा नेतृत्व निभाती है।

हमें एक ऐसा समाज रचना होगा जहां हर बालिका बिना डर के बोले, बिना बाधा के सीखे, और बेझिझक सपने सजाए। इसके लिए शिक्षा में समावेश, रोजगार में समानता और सामाजिक ढांचे में संवेदनशीलता अनिवार्य है। लड़कियां बदलाव की मांग नहीं करतीं—वे बदलाव का चेहरा हैं। वे ग्रेटा थनबर्ग की तरह जलवायु परिवर्तन के खिलाफ दुनिया को झकझोर रही हैं। वे डिजिटल युग में तकनीकी क्रांति की नींव रख रही हैं। वे सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जो अपने समुदायों में समानता की लौ जला रही हैं।

“मैं लड़की हूं, मैं बदलाव का नेतृत्व करती हूं” सिर्फ एक नारा नहीं, एक अटल विश्वास है। यह हमें सिखाता है कि जब हम एक लड़की को बोलने का मंच देते हैं, तो हम भविष्य को नया आकार देते हैं। जब हम उसकी प्रतिभा पर भरोसा करते हैं, तो हम समाज को अडिग बनाते हैं। 11 अक्टूबर 2025 का अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस केवल एक तारीख नहीं, बल्कि एक क्रांति का आह्वान है। यह हर उस लड़की की आवाज को बुलंद करेगा, जो अपने भीतर दुनिया बदलने की ज्वाला रखती है। जिस दिन हर लड़की निर्भय होकर कह सके—“मैं डरती नहीं, मैं नेतृत्व करती हूं”—वही दिन इस उत्सव की सच्ची जीत होगा। क्योंकि एक ऐसा समाज, जहां लड़कियां संकटों में भी मुस्कराकर आगे बढ़ें, वही सच्चे अर्थों में प्रगतिशील है।

  - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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