[प्रसंगवश – 26 अक्टूबर: गणेश शंकर विद्यार्थी जयंती]
स्वराज और समानता के प्रणेता: गणेश शंकर विद्यार्थी
[कलम से क्रांति, कर्म से प्रेरणा: गणेश शंकर विद्यार्थी]
[स्वतंत्रता, समाज सुधार और पत्रकारिता का प्रतिमान]
गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम और पत्रकारिता के इतिहास में अमर है। 26 अक्टूबर 1890 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज) में जन्मे इस युगपुरुष ने अपने जीवन को सत्य, न्याय और मानवता के लिए समर्पित कर दिया। उनकी लेखनी, विचार और कर्म न केवल अपने समय में क्रांतिकारी थे, बल्कि आज भी समाज को जागृत करने और नैतिक पथ पर अग्रसर होने की प्रेरणा देते हैं। पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी और समाज सुधारक के रूप में उन्होंने एक ऐसी मिसाल कायम की, जो हमें सिखाती है कि सच्चाई और न्याय के लिए निरंतर संघर्ष ही जीवन का सच्चा मोल है। उनकी जयंती हमें उनके योगदान को याद करने और उनके आदर्शों को जीवन में उतारने का संदेश देती है।
गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता उस दौर में एक सशक्त हथियार थी, जब ब्रिटिश शासन प्रेस की स्वतंत्रता को कुचलने पर आमादा था। ‘प्रताप’ जैसी पत्रिका के माध्यम से उन्होंने स्वराज की ज्योति जन-जन तक पहुँचाई। उनकी लेखनी में तथ्यों की निर्मम स्पष्टता थी, जो साहस और दृढ़ता का प्रतीक बनी। उनके संपादकीय लेखों ने ब्रिटिश शासन की कुटिल नीतियों को बेनकाब किया और जनता को उनके अधिकारों के प्रति सजग किया। विद्यार्थी मानते थे कि पत्रकारिता का लक्ष्य केवल सूचना देना नहीं, बल्कि समाज में परिवर्तन लाना और अन्याय के खिलाफ डटकर मुकाबला करना है। उनकी यह दृष्टि उस दौर की पत्रकारिता को नई दिशा दे रही थी, जब अधिकांश समाचार पत्र या तो औपनिवेशिक दबाव में दबे थे या सीमित दायरे में सिमटे थे। उनकी लेखनी ने असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन जैसे स्वतंत्रता संग्राम के प्रयासों को जन-आंदोलन का रूप दिया। उनके लेखों में वह ज्वाला थी, जो लोगों के हृदय में स्वतंत्रता की लालसा को और प्रचंड कर देती थी।
गणेश शंकर विद्यार्थी का स्वतंत्रता संग्राम में योगदान केवल लेखनी तक सीमित नहीं था; वे एक कर्मठ स्वतंत्रता सेनानी थे, जिन्होंने अपने कार्यों से इतिहास रचा। महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग और सविनय अवज्ञा आंदोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी ने जनता में आत्मविश्वास और संगठन की भावना को प्रज्वलित किया। उनके नेतृत्व में चले आंदोलनों ने जन-जन में स्वतंत्रता की ललक को और सशक्त किया। ब्रिटिश शासन की यातनाओं और बार-बार की जेल यात्राओं ने भी उनके अटल संकल्प को डिगा न सका। जेल की सलाखों के पीछे भी उनकी लेखनी ने स्वतंत्रता की अलख जगाए रखी। पत्रों और लेखों के माध्यम से उन्होंने आंदोलन को गति दी, यह सिद्ध करते हुए कि वे न केवल कलम के सिपाही थे, बल्कि कर्म के भी योद्धा थे, जो हर मोर्चे पर स्वतंत्रता के लिए जूझ रहे थे।
सामाजिक सुधार के क्षेत्र में गणेश शंकर विद्यार्थी का योगदान भी अद्वितीय था। उन्होंने समाज में गहरे पैठी कुरीतियों—जातिवाद, अशिक्षा और महिलाओं के प्रति भेदभाव—के खिलाफ अपनी लेखनी और वाणी को हथियार बनाया। उनका दृढ़ विश्वास था कि सच्ची स्वतंत्रता तभी साकार होगी, जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित, जागरूक और समानता के अधिकार से युक्त हो। शिक्षा को उन्होंने समाज की प्रगति का मूलमंत्र माना और इसके प्रसार के लिए अथक प्रयास किए। विशेष रूप से, महिलाओं की शिक्षा और उनके अधिकारों की पैरवी कर उन्होंने उस रूढ़िग्रस्त समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन की नींव रखी। अपने लेखों और भाषणों के माध्यम से उन्होंने बार-बार यह संदेश दिया कि सामाजिक सुधार के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी है। यह दूरदर्शी दृष्टिकोण उन्हें न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी, बल्कि एक प्रबुद्ध समाज सुधारक के रूप में भी अमर बनाता है।
गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता शैली आज भी पत्रकारिता जगत में एक स्वर्णिम मापदंड है। उनकी लेखनी में तथ्यों की सटीकता, तर्कों की गहराई और नैतिकता की अटलता का अनुपम समन्वय था। ब्रिटिश शासन के कठोर नियंत्रण और प्रेस पर लगाम के बावजूद उन्होंने निष्पक्षता और साहस के साथ पत्रकारिता की मशाल जलाए रखी। उनके संपादकीय और लेख आज भी पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा का अक्षय स्रोत हैं। उन्होंने पत्रकारिता को न केवल एक पेशा, बल्कि एक शक्तिशाली हथियार बनाया, जो अन्याय के खिलाफ लड़ता था और समाज को जागृत व संगठित करने में अग्रणी भूमिका निभाता था। उनकी यह शैली आधुनिक पत्रकारों को सिखाती है कि सत्य और निष्पक्षता ही पत्रकारिता की आत्मा हैं।
गणेश शंकर विद्यार्थी के जीवन का सबसे प्रेरक पहलू उनका सर्वोच्च बलिदान है। 1931 में कानपुर के सांप्रदायिक दंगों की भयावह आग में, जब समाज हिंसा की चपेट में था, विद्यार्थी ने अपनी जान की परवाह किए बिना शांति का संदेश लेकर सड़कों पर कदम रखा। लोगों को समझाने और हिंसा रोकने के इस प्रयास में उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी। उनका यह बलिदान न केवल उनके सत्य, अहिंसा और मानवता के प्रति अटूट समर्पण का प्रतीक है, बल्कि यह भी सिखाता है कि सच्चा नेतृत्व वही है, जो संकट की घड़ी में समाज के लिए सर्वस्व न्योछावर करने से न डरे। उनका यह त्याग हमें आज भी मानवता और एकता के लिए जीने की प्रेरणा देता है।
गणेश शंकर विद्यार्थी की जयंती, 26 अक्टूबर, केवल उनके जन्म का स्मरण नहीं, बल्कि उनके आदर्शों को जीवंत रखने का एक पवित्र अवसर है। उनका जीवन हमें सिखाता है कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल राजनीतिक बेड़ियों से मुक्ति नहीं, बल्कि समाज से अन्याय, अशिक्षा और असमानता का उन्मूलन भी है। आज के दौर में, जब समाज फिर से विभाजन और असमानता की खाई में फँसता दिख रहा है, विद्यार्थी के विचार और कर्म हमें प्रेरित करते हैं कि साहस, सत्य और समाज सेवा के बल पर ही एक न्यायपूर्ण और समृद्ध समाज का निर्माण संभव है। उनकी लेखनी और बलिदान की गूँज आज भी हमें अपने कर्तव्यों के प्रति जागृत करती है, हमें समाज के लिए सार्थक योगदान देने को प्रेरित करती है।
गणेश शंकर विद्यार्थी का जीवन एक प्रज्वलित मशाल है, जो अंधकार में भी मार्गदर्शन करती है। उनकी पत्रकारिता, उनके विचार और उनका सर्वोच्च बलिदान हमें सिखाते हैं कि सत्य और न्याय के लिए संघर्ष ही जीवन का सच्चा उद्देश्य है। उनकी जयंती पर हमें यह प्रण लेना होगा कि उनके दिखाए मार्ग पर चलते हुए हम समाज में जागरूकता, समानता और सत्य की स्थापना के लिए अथक प्रयास करेंगे। उनका जीवन यह दर्शाता है कि चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी प्रतिकूल हों, सत्य और मानवता के लिए समर्पित जीवन ही वास्तव में अर्थपूर्ण है।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)
.jpg)
