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महिलाओं की आज़ादी बनाम शासन की जिम्मेदारी - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)


 

महिलाओं की आज़ादी बनाम शासन की जिम्मेदारी

[खोखले बयान नहीं, कानून और न्याय से बनती है सुरक्षा]

       पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का हालिया बयान कि “लड़कियों को रात में बाहर नहीं निकलना चाहिए,” समाज की उस रूढ़िगत सोच को उजागर करता है जो अपराधी को छोड़कर पीड़िता को कठघरे में खड़ा करती है। दुर्गापुर मेडिकल कॉलेज में एक छात्रा के साथ हुए सामूहिक दुष्कर्म की दिल दहलाने वाली घटना के बाद यह बयान न केवल असंवेदनशील है, बल्कि यह उस पितृसत्तात्मक मानसिकता का आईना है जो महिलाओं की स्वतंत्रता को खतरा मानती है। एक प्रगतिशील समाज शासन से अपराध के खिलाफ कठोर कार्रवाई की उम्मीद करता है, न कि ऐसी सलाह की जो पीड़िता के जख्मों पर नमक छिड़के और उनकी आज़ादी को बेड़ियों में जकड़े। यह बयान न केवल पीड़िता के दर्द को गहराता है, बल्कि सवाल उठाता है: क्या शासन अपनी जिम्मेदारियों से मुँह मोड़ रहा है?

ममता बनर्जी का यह कहना कि “पुलिस हर घर के बाहर पहरा नहीं दे सकती,” शायद उनकी सरकार की सीमाओं को दर्शाता है, मगर यह सवाल खड़ा करता है: यदि शासन ही सुरक्षा की गारंटी न दे, तो महिलाएँ किसके भरोसे जिएँ? सुरक्षा किसी भी लोकतंत्र का मूलभूत वादा है, न कि सरकार की दया। यह तर्क कि निजी मेडिकल कॉलेजों को अपनी छात्राओं, खासकर दूसरे राज्यों से आई लड़कियों की सुरक्षा सुनिश्चित करनी चाहिए, सही हो सकता है, लेकिन जब यह “रात में बाहर न निकलने” की शर्त के साथ आता है, तो यह अपराधियों को छूट देने और पीड़िताओं को कैद करने जैसा है। क्या महिलाओं की आज़ादी कुर्बान करना ही सुरक्षा का एकमात्र रास्ता है?

महिलाओं की सुरक्षा प्रशासनिक इच्छाशक्ति और कठोर कानून व्यवस्था पर टिकी है। अपराधियों के खिलाफ त्वरित और कड़ी कार्रवाई ही इस बुराई की जड़ काट सकती है। मगर जब सत्ता में बैठे लोग ही ऐसे बयान देते हैं, तो यह अपराधियों के हौसले बुलंद करता है। ममता बनर्जी ने अन्य राज्यों की घटनाओं का हवाला देकर समस्या को सामान्य बनाने की कोशिश की, जो न केवल जवाबदेही से पलायन है, बल्कि अपराध को छोटा दिखाने का प्रयास भी है। शासन का काम तुलना करना नहीं, बल्कि अपने क्षेत्र में न्याय और सुरक्षा सुनिश्चित करना है। दुर्गापुर की घटना केवल एक छात्रा पर नहीं, बल्कि उस तंत्र पर हमला है जो महिलाओं को सुरक्षित रखने में नाकाम रहा।

यह बयान उस पितृसत्तात्मक सोच का प्रतीक है जो महिलाओं की स्वतंत्रता को अपराध और अपराध को सामान्य मानता है। “रात में बाहर न निकलने” की सलाह महिलाओं की आज़ादी पर हमला है और उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक ठहराती है। सच्चा बदलाव तभी आएगा जब शासन और समाज मिलकर यह सुनिश्चित करें कि हर लड़की, हर समय, हर जगह बिना डर के जी सके। सुरक्षा कंक्रीट की दीवारों से नहीं, बल्कि सशक्त कानून, त्वरित न्याय और अपराधियों को कठोर सजा से मिलती है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के 2022 के आँकड़े चीख-चीखकर बताते हैं कि पश्चिम बंगाल में महिलाओं के खिलाफ अपराधों की दर राष्ट्रीय औसत से कहीं ऊँची है। बलात्कार, यौन उत्पीड़न और घरेलू हिंसा की घटनाएँ बेकाबू बढ़ रही हैं। ऐसे में ममता बनर्जी का बयान कि “लड़कियों को रात में बाहर नहीं निकलना चाहिए,” न केवल असंवेदनशील है, बल्कि शासन की नाकामी को नंगा करता है। यदि सरकार यह कहे कि वह हर जगह सुरक्षा नहीं दे सकती, तो यह अपनी मूल जिम्मेदारी से पलायन है। कॉलेजों पर जिम्मेदारी डालना या सलाह देना काफी नहीं; जरूरत है ऐसी व्यवस्था की जो अपराधियों के मन में खौफ पैदा करे। इसके लिए पुलिस सुधार, त्वरित अदालती कार्रवाई और सामाजिक जागरूकता जैसे ठोस कदम अनिवार्य हैं।

2012 के दिल्ली निर्भया कांड के बाद बने कठोर कानूनों ने सजा को सख्त किया, लेकिन इनका असर तभी है जब इन्हें कड़ाई से लागू किया जाए। पश्चिम बंगाल को भी कानूनी ढाँचे को मजबूत करना होगा, पुलिस को संवेदनशील और जवाबदेह बनाना होगा, और स्कूलों-कॉलेजों से लेकर कार्यस्थलों तक जेंडर संवेदनशीलता को बढ़ावा देना होगा। तृणमूल कांग्रेस हमेशा महिलाओं के सशक्तीकरण की बात करती रही है, मगर ममता बनर्जी का यह बयान उनकी छवि और नीतियों को धूमिल करता है। यह उन लाखों महिलाओं के विश्वास को तोड़ता है जो उन्हें प्रगतिशील नेता मानती हैं।

दुर्गापुर की घटना ने साबित किया कि बयानबाजी और दोषारोपण से महिलाओं की सुरक्षा नहीं होगी। ममता बनर्जी को समझना होगा कि समाज तब सुरक्षित होगा जब अपराधियों को कठोर सजा मिले, न कि महिलाओं को बंधनों में बाँधा जाए। महिलाओं की स्वतंत्रता और सुरक्षा एक-दूसरे की पूरक हैं, विरोधी नहीं। जब तक यह सोच शासन और समाज में नहीं आएगी, ऐसी घटनाएँ रुकेंगी नहीं। समाज को यह भरोसा देना होगा कि हर महिला बिना डर के, अपनी मर्जी से जी सकती है।

ममता बनर्जी का यह बयान निराशाजनक होने के साथ-साथ उस सामाजिक और प्रशासनिक विफलता का प्रतीक है जो महिलाओं को उनकी आज़ादी और सम्मान से वंचित रखता है। सभ्य समाज तभी बनेगा जब शासन अपराधियों को कठघरे में लाए, न कि महिलाओं को घरों में कैद करने की सलाह दे। ममता जैसे नेताओं को साहसिक कदम उठाने होंगे, क्योंकि बदलाव की शुरुआत सत्ता के शीर्ष से होती है। यह समय खोखले बयानों का नहीं, बल्कि ऐसी कार्रवाई का है जो हर महिला को बिना डर के जीने की गारंटी दे।

 - प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)

देवेन्द्र सोनी नर्मदांचल के वरिष्ठ पत्रकार तथा युवा प्रवर्तक के प्रधान सम्पादक है। साथ ही साहित्यिक पत्रिका मानसरोवर एवं स्वर्ण विहार के प्रधान संपादक के रूप में भी उनकी अपनी अलग पहचान है। Click to More Detail About Editor Devendra soni

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