परंपरा से प्रगति तक: डॉ. मोहन यादव का सांस्कृतिक नेतृत्व
[नेतृत्व जो मिट्टी से जुड़ा, और संस्कृति जो फिर से जागी]
[जड़ों से जुड़ता विकास: मध्यप्रदेश का अद्वितीय सांस्कृतिक मॉडल]
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)
मध्यप्रदेश की मिट्टी में आज भी वही सौंधी सुगंध तैरती है, जो सदियों से बैगा, गोंड, भीलाला और कोरकू जनजातियों की लोक-कथाओं, गीतों और अनुष्ठानों से उठती रही है। यह भूमि केवल खेतों, पहाड़ियों और घने जंगलों का भूगोल नहीं रही; यह उन अनगिनत सांस्कृतिक धरोहरों का जीवंत दस्तावेज़ भी है, जिन्हें पीढ़ियाँ अपनी बोली, अपनी स्मृतियों और अपने अनुभवों में सँजोती आईं। लेकिन समय के तेज़ प्रवाह और आधुनिकता की चमक ने इन परंपराओं की धीमी होती धड़कनों को लंबे समय तक अनसुना किया। कई कर्मा नृत्य केवल स्मृतियों में बचे, मांडना चित्र दीवारों से उतरकर संग्रहालयों की कैद में चले गए, और अनेक लोक-देवता अपने ही समुदाय की यादों से धुंधले पड़ने लगे।
इन्हीं मिटती आवाज़ों के बीच दिसंबर 2023 में जब डॉ. मोहन यादव ने मध्यप्रदेश की बागडोर संभाली, तो उन्होंने सत्ता की परिभाषा को ही बदल दिया। उनके लिए शासन केवल फाइलों, योजनाओं और वित्तीय आँकड़ों का जोड़-घटाव नहीं था—यह सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जीवित करने का संकल्प था। वे केवल एक प्रशासक नहीं, बल्कि उस विरासत के संरक्षक बने जो समझते थे कि यदि जनजातीय समाज की जड़ें कमज़ोर हो जाएँ, तो मध्यप्रदेश अपनी आत्मा खो बैठेगा। इसलिए उन्होंने शासन को जनजातीय संस्कृति के पुनर्जागरण का माध्यम बनाया, और यह संकल्प पूरे राज्य की धड़कनों में उतरने लगा।
डॉ. मोहन यादव के नेतृत्व में राज्य की सांस्कृतिक आधारशिला को नए सिरे से मजबूती मिली। जनजातीय गौरव दिवस को मध्यप्रदेश ने ऐसी ऊँचाई दी कि 2025 में जबलपुर और अलीराजपुर में भव्य राज्यस्तरीय आयोजन हुए, 662 करोड़ रुपये की योजनाओं का शिलान्यास हुआ, और भोपाल में राष्ट्रीय जनजातीय कॉन्क्लेव व वैश्विक निवेशक सम्मेलन के जरिए आदिवासी संस्कृति को अंतरराष्ट्रीय मंच मिला। मंडला, डिंडवानी, छिंदवाड़ा, अलीराजपुर जैसे जिलों के जनजातीय हाट-बाज़ार पुनर्जीवित हुए, जहाँ फिर से बांसुरी की मधुर थिरकन, मिट्टी के घड़ों की सौंधी महक और बुज़ुर्गों की लोककथाएँ जीवंत दिखाई देती हैं। कला को बढ़ावा देने के लिए तुलसी सम्मान, देवी अहिल्याबाई पुरस्कार और पेंशन योजनाओं ने कलाकारों को नई पहचान दी। भगोरिया जैसे पारंपरिक मेले अब सिर्फ़ उत्सव नहीं, बल्कि राज्य की सांस्कृतिक पहचान के सशक्त प्रतीक बन चुके हैं।
आज जब कोई मध्यप्रदेश के किसी भी कोने में कदम रखता है—बैगा बहुल बैहर, गोंड बहुल मंडला, या भील बहुल पेटलावद—तो वहाँ की हवा में एक नई ताज़गी का संगीत सुनाई देता है। बच्चे अपनी मातृभाषा में गीत गाते हैं, महिलाएँ गुदना की परंपरा को गर्व से निभाती हैं, और युवा अपने नृत्य-रागों को फिर से गाँव के आँगन में जीवंत कर रहे हैं। यह बदलाव किसी दिखावे का परिणाम नहीं, बल्कि एक सुविचारित और संवेदनशील सांस्कृतिक पुनर्जागरण का प्रतिफल है, जिसकी धुरी स्वयं डॉ. मोहन यादव की दूरदर्शी सोच है। उनका मानना है कि विकास तभी पूर्ण होता है, जब उसकी नींव में हमारी मिट्टी की खुशबू, हमारे पूर्वजों की आवाज़ और आने वाली पीढ़ियों की मुस्कान शामिल हो। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि सड़कें, उद्योग, योजनाएँ—ये सब तभी टिकाऊ हैं, जब उन परंपराओं की पगडंडियाँ भी मजबूत रहें जो हमारी पहचान का मूल स्रोत हैं।
मोहन यादव सरकार ने जनजातीय संस्कृति को केवल “संरक्षित” नहीं किया—उसे फिर से साँस दी है। जहाँ कभी बैगा के डंडार नृत्य की थाप सिर्फ़ पुरानी रिकॉर्डिंगों में कैद थी, वहीं आज डिंडोरी की घाटियाँ फिर उसी लय में गूँज रही हैं। जहाँ गोंड चित्रकला घरों की दीवारों से गायब होने लगी थी, वहाँ झाबुआ की बेटियाँ पिथौरा को नए उजाले के साथ सरकारी प्रयासों से संरक्षित हो रहे हैं, जो डिंडोरी की घाटियों में गूँज रहे हैं। सहरिया का राई नृत्य राष्ट्रीय मंचों पर पहुंचा, कोरकू की रेला धुन को सरकारी संरक्षण मिला, और भील युवाओं के हाथों में अब तीर-कमान के साथ अपना गौरव और आत्मविश्वास भी लौट आया है।
डॉ. यादव ने समझा कि कोई भी शिक्षा तब तक सार्थक नहीं, जब तक आदिवासी बच्चा अपनी भाषा और अपनी कहानी के साथ स्कूल न जाए। इसी सोच के साथ मध्यप्रदेश के स्कूलों में जनजातीय भाषाओं और लोककथाओं को पाठ्यक्रम में शामिल करने के प्रयास तेज़ हुए हैं, जैसे बालागाँव से बड़वानी तक। उन्होंने साबित किया कि सम्मान केवल भाषणों से नहीं, बल्कि आचरण से मिलता है। मुख्यमंत्री स्वयं भगोरिया मेले में आदिवासियों के साथ उत्साहपूर्वक शामिल हुए और ढोल बजाकर नृत्य का आनंद लिया, मंडला जैसे क्षेत्रों में गोंड कलाकारों को जनजातीय आयोजनों में सम्मानित किया गया, और जनजातीय गौरव दिवस के अवसर पर पूरे देश ने देखा कि मध्यप्रदेश ने अपनी मिट्टी और संस्कृति को कितनी गरिमा से संसार के सामने प्रस्तुत किया।
आज मध्यप्रदेश का हर कोना इस सत्य को दोहराता है कि विकास की ऊँची इमारतें तभी खड़ी होती हैं जब उनकी नींव में अपनी भाषा की गूँज, अपने बुज़ुर्गों का आशीर्वाद और अपनी मिट्टी की सुगंध समाहित हो। इसलिए आज आदिवासी माँ अपने बच्चे को गोद में लेकर गर्व से कहती है—“हम गरीब हो सकते हैं, लेकिन हमारी संस्कृति अब अनाथ नहीं है।” यह वाक्य किसी योजना का लाभ नहीं, बल्कि उस आत्मविश्वास का प्रमाण है जिसे डॉ. मोहन यादव ने अपने हर निर्णय में पोषित किया। इसलिए आज पूरा मध्यप्रदेश एक स्वर में स्वीकार कर रहा है कि यह मात्र एक सरकार नहीं, बल्कि हमारी खोई हुई सांस्कृतिक धड़कनों को वापस लाने वाला युग है—एक ऐसा समय जब परंपरा फिर से सम्मान बन गई है और जड़ें इतनी मजबूत हो गई हैं कि कोई आँधी उन्हें हिला नहीं सकती।
डॉ. मोहन यादव ने वह कर दिखाया जिसकी कल्पना तक कम लोगों ने की होगी। उनकी सरकार की शक्ति इस संतुलन में निहित है कि विकास की रफ्तार भी कम न हो और सदियों पुरानी विरासत भी उसी गति से पुनर्जीवित होती रहे। उन्होंने सिद्ध किया कि सत्ता कोई अधिकार नहीं, बल्कि उन लाखों अनसुनी आवाज़ों को सुनने की जिम्मेदारी है जिन्हें वर्षों तक उपेक्षा मिली। आज बैगा, भारिया और सहरिया का बच्चा गर्व से कहता है—“हमारा मुख्यमंत्री हमारी बोली, हमारी परंपरा और हमारी अस्मिता का सबसे बड़ा संरक्षक है।” भील की बेटी सिर ऊँचा करके चलती है क्योंकि उसे पता है कि भोपाल की गद्दी पर बैठा नेता उसकी संस्कृति को अपना मानकर चलता है।
यही है डॉ. मोहन यादव की सबसे बड़ी विजय—एक ऐसी विजय जो किसी आँकड़े, किसी सर्वे या किसी रिपोर्ट में नहीं मापी जा सकती। यह विजय सीधे दिलों में दर्ज होती है। मध्यप्रदेश आज केवल भारत का दिल नहीं, बल्कि भारत की जनजातीय आत्मा का सबसे मजबूत, सबसे जीवंत किला बन रहा है—और इस किले की नींव में एक ही नाम है: डॉ. मोहन यादव।
- प्रो. आरके जैन “अरिजीत”, बड़वानी (मप्र)
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